Thursday, December 31, 2009

वियोगी होगा पहला कवि...अन्तिम नहीं !


इस बार तुम्हारी दूरी
   कविता नहीं करवाती है
मुझमें अजब-सा सूनापन
अवसाद, शून्यता और बेचैनी भरती जाती है
इस बार तुम्हारी दूरी
मुझसे रचना नहीं करवाती है
कर अवश मुझे
दुखी, वियोगी पात्र
जो मैं हूँ' -- बनाती है
इस बार तुम्हारी दूरी
काव्योचित गरिमा नहीं भर पाती है
प्रेम कहानी के देवदास-नुमा संस्करण को
मेरे बरअक़्स लाती है
इस बार तुम्हारी दूरी
मुझे कवि नहीं बनाती है
जो दूर है अपनी प्रिया से-छटपटाता, धैर्यहीन
ऐसा ऐतिहासिक पात्र बनाती है


Wednesday, December 30, 2009

प्रेम और रूपांतरण

वो मुझे प्यार कर रही है
मैं बूझ लेता जब वो मुझे बताती
मुझे ठंडी हवाएँ पसंद है
मुझे बारिश बहुत अच्छी लगती है
मुझे रातों को देर तक जागना
और उठना सुबह देर से भी
बहुत पसंद है
मुझे डूबता सूरज और पूरा चाँद
इंतेहाई ढंग से अच्छा लगता है
वो मेरी बाहों में बाँहें डाल
सिर सीने से टिका लेती और मुझे
लगता वो किसी घने छायादार पेड़
के तने को बेहद पसंद करती है
वो मुझे बताती रहती जिसे मैं उसके प्यार की
तरह लेता
मुझे गुलाबी, फिरोज़ी और सफेद रंग पसंद है,
मुझे मछलियाँ, रंग-बिरंगी- पालना पसंद है
मुझे किताबें, क्लासिकल और गज़लें पसंद हैं,
मैं जानता था वो यह कहकर
मुझे प्यार कर रही है
मुझे गुलाब और उससे भी ज्यादा
रजनीगंधा पसंद है-- वो कहती
मुझे कपड़े, खऱीदना, नकली जेवर और
असली मोती पसंद है
मुझे हीरा पसंद है--खरीदना है
मैं जानता था वो मुझे प्यार कर रही है
उसे सेब, संतरे, अमरूद और आम
पसंद है-- मैं जानता हूँ
मैं जानता हूँ, उसे कभी-कभार बाहर जाना
पसंद है--बल्कि इससे भी ज्यादा पसंद है
अपने पसंद की चीजों को इकट्ठा
करने की योजना बनाना
मैं जानता हूँ इस तरह वो मुझे प्यार कर रही है
वो मुझे प्यार करती रही
और मैं समझता रहा कि
वो वह सब कर रही है
जो वह चाहती थी करना
मैं पूरी तरह नहीं तो बहुत हद तक
गलत था--क्योंकि
मैं समझता था, जिस तरह मैं
अपनी पसंद को रूपांतरित कर पाता हूँ
अपने प्रेम में, वो भी कर पाएँगी
करेगी--कर पाती होगी--


Tuesday, December 29, 2009

पंचतत्व




पुराने पत्तों के निशान
पेड़ पर कहाँ रह पाते हैं?
उड़कर वहीं कहीं दफन हो
नए पत्तों के लिए खाद बन जाते हैं...
हम पेड़ नहीं इंसान हैं
गो यादें तो रख पाते हैं
यादों के दर्द तो फिर भी
नए रिश्तों ही के काम आते हैं
इधर से देखो या उधर से
हम सब धीरे-धीरे पेड़ बनते जाते हैं
जितना लेते हैं जमीन से,
हवाओं को उतना अधिक लुटाते हैं...
बीज, जड़ें, अंकुर, पौधा, झाड़ी, पेड़, घना वृक्ष
सीढ़ियाँ हैं चढ़ जाते हैं
जिन पुरखों ने लगाया है, उनकी पीढ़ियों के
कभी दरवाजे, कभी खिड़कियाँ,
कभी कुर्सी मेज, अलमारी बन जाते हैं....
अंत कहाँ है कौन जानता
पेड़ हो या इंसा हो
हवा, मिट्टी, पानी
भूमि, आकाश
जहाँ से आए वहीं चले जाते हैं
(फिर-फिर वापस आते हैं)

Sunday, December 27, 2009

गोवा आकर


न मछली पकड़ूँ
न फैनी, ताड़ी बनाऊँ
लिखूँ कविताएँ, कहानियाँ (शायद)
उपन्यास (निश्चित ही)
और महाकाव्य समुद्र पर
सीख लूँ बजाना
गिटार, मेंडोलिन,
तबला या ड्रम
जब भी मिले तनहाई
मन उदास (गर) हो
उसे बजाऊँ..
मैं जहाँ पैदा हुआ हूँ
वहाँ मरना नहीं चाहता...

गोवा में जी करता है


मैं यहीं बस जाऊँ

रात को जाल फैलाऊँ
सुबह समेटने जाऊँ
चढूँ नारियल पर
ताड़ी निकाल कर लाऊँ
काजू फल तोड़ू
सड़ाऊँ, भट्टी पर चढ़ाऊँ
फैनी बनाऊँ
मगर, क्या करूँ उन सबका
पिऊँ, न खाऊँ !!

Saturday, December 26, 2009

उलटबाँसी


छोटी-छोटी लहरें

मिलकर बनाती है
एक बड़ी लहर...
.......................

छोटी-छोटी यादें
मगर बनने से रोकती है
एक बड़ी याद....


Friday, December 25, 2009

गोवाः विश्व-गीत




समुद्र भी है
पहाड़ भी
टीला भी है
कछार भी
जंगल भी है
रेत का विस्तार भी
कोई कश्मीर से
कोई लद्दाख से
कोई गुजरात से
कोई महाराष्ट्र से
कोई केरल से
कोई हरिद्वार से
कोई नैनीताल से
कोई राजस्थान से
कोई रूमानिया
कोई फ्रांस से
कोई जर्मनी
कोई जापान से
कोई इटली
कोई इजराइल से
कोई अमेरिका
कोई ब्रिटेन से
कोई क्यूबा
कोई थाईलैंड से
गोवा में आकर
लगता है ऐसे
ग्लोबल बस्ती में
आ गए हों जैसे
गोवा दुनिया का
विश्व गीत हो जैसे

Thursday, December 24, 2009

इन्टेन्स


क्षण नहीं,
उस क्षण को
पकड़ने
हर कोई
बेताब दिखता है
अपना कैमरा, कैनवास,
गिटार और कागज लिए
जो गहनता में बसा है
सबके अंदर

Wednesday, December 23, 2009

सजग मछेरा


हर पल जैसे ,
आकर्षित करता है
समुद्र...
चौबीसों घंटे
कोई-न-कोई
तट पर बैठा,
दौड़ता, टहलता
ध्यानस्थ, योगस्थ
दिख ही जाता है

Tuesday, December 22, 2009

कॉटेज में


-1

सिर से पैर तक
कपड़ों से सामान तक
एक ही चीज
होती है आयात
कॉटेज के अंदर
-कनियाँ रेत की-
सबसे बहुमूल्य सौगात
समुद्र की
बिल्कुल मुफ्त
-2
एक और चीज
साथ आती है
मेरे
नमकीन पसीना
जो कहता है
समुद्र और धूप-स्नान के बाद भी
एक और बार
जरूरी है नहाना

Monday, December 21, 2009

रात भर




समंदर की आवाज आती रही
रात भर
समंदर की हवाएँ इठलाती रहीं
रात भर
लहर पर लहर पर लहर आती रही
रात भर
नींद आती रही, नींद जाती रही
रात भर
मुझको भी खुद -सा बावरा बनाती रही
रात भर
डूबते- उतराते किनारों पे लाती रही
रात भर

Sunday, December 20, 2009

वर्किंग गर्ल




एक लड़की
निकलती है अपने ऑफिस से
प्रत्यंचा से छूटे तीर की तरह
(रास्ते में खरीदते हुए फल जो उसे बेहद पसंद है)
सोचती है
कहीं देर न हो जाए
और
सुननी न पड़े
शिकायत
देखती है न इधर, न उधर
रूकती नहीं चौराहों पर
लाल सिग्नल के
हरे होने से पहले ही
पीली रोशनी में
पड़ती है निकल
डाँटती, झुँझलाती
राह काटते
राहगीरों, वाहन चालकों पर
तेज फर्राटे से चलाती
हुई गाड़ी
दू....र
से नजर आता है,
राह में
उसे लेने
पैदल निकला कोई
भर जाती है
खुशनुमा अहसास से
आ जाती है पास
ताकि दूसरे दिन
फिर
बूमरेंग-सी
निकल सके
घर से....

Saturday, December 19, 2009

इतना असली है चेहरा तेरा


मुझे बताने की ज़हमत भी नहीं उठाई जाती
दूर रहा जाता है, कैफ़ियत भी नहीं बताई जाती

तुम डूबे हो खुद में, सीप में कनी की तरह
मैं समंदर में हूँ, इस नमक की कीमत नहीं लगाई जाती

कायनात थी पहले-पहल, दस आयामों में बँटी
जरूर होगी, वरना क्यूँ तेरी तासीर समझ में आई नहीं जाती

हवाओं में खुशबू, फ़िजाओं में मस्ती, हर पेड़ पे फूल खिले हैं
कुदरत जो खेलती होली, हमसे मनाई नहीं जाती

चंद फूल टेसू के इकट्ठा कर, रंग बनाऊँ तुझे लगाऊँ
इतना असली है चेहरा तेरा, नकली गुलाल लगाई नहीं जाती

मेरी गज़ल पूरी होने को आई मगर तुम न आए
जाने क्या रोकता है, आखिरी लाइन लिखी ही नहीं जाती

Friday, December 18, 2009

तुम्हारी याद की कनी



ख़ामोश रहता हूँ कुछ नहीं कहता हूँ
तुम्हारी बदगुमानियाँ चुपचाप सहता हूँ।


तुम्हारा इतराना, इठलाना, बलखाना
पत्थर नहीं हूँ, गोया पत्थर बन रहता हूँ।


गली के मोड़ से आती हो तुम
तुम्हारी पायल की आवाज बूझ जाता हूँ।


मसूड़े दिख रहे होंगे हँसते हुए तुम्हारे
तुम हँसती हो तो दूर से समझ जाता हूँ।


अब बन जाएगा सीप में मोती कोई
तुम्हारी याद की कनी दिल में गहता हूँ।

यकायक अपने ज़द में ले लेता है कोई
बेसाख़्ता उठाता हूँ कलम, गज़ल कहता हूँ।

Thursday, December 17, 2009

इस दुनिया के लोग




प्रेम करो तो चौंकते हैं इस दुनिया के लोग
कतरा के निकलो तो रोकते हैं इस दुनिया के लोग


मैं कितनी उम्मीद से आया था इस शहर में
हर कदम पे नाउम्मीद करते जाते हैं, इस दुनिया के लोग

मेरी पेशानी पे हैं अब भी चिंता की लकीरें
गले में फूलों को हार पहनाते हैं, इस दुनिया के लोग

मैं अपनी ही दुनिया में गुम रहना चाहता हूँ
मुझे खींच के इस दुनिया में ले आते हैं, इस दुनिया के लोग


हँस लो मेरे हालात-ए-जुनूँ पे तुम भले आज
कल मेरी बहकी बातों को फ़लसफ़ा बताएँगे इस दुनिया के लोग

मैं अपनी धुन का पक्का हूँ जिस तरह
मेरी कब्र भी वैसी पक्की बनवाएँगें, इस दुनिया के लोग

Wednesday, December 16, 2009

समंदर




सुबह सहलाता है
दोपहर नहलाता है
रुमानी हो जाता है शाम को
रात को दहलाता है
है तो एक ही,
मगर आठ पहर में
सोलहों श्रंगार दिखलाता है

Tuesday, December 15, 2009

गोवा




उन्मुक्त,आधे चाँद की रात है
सुरीला सागर तट है
नारियल-वन की सौगात है
सागर सुनती तुम हो
हाथ में कापी-कलम
लहरों की दवात है
मैं नशे में हूँ यूँ ही
काजू-फेनी की क्या औकात है

Monday, December 14, 2009

' म '




देश को
पुर्तगाल-संस्कृति की
देन-विरासत(म)

पंजिम
वास्को-डि-गाम
लुटालिम
पलेम
कानकोनम
पलोलेम
और
.................

हम.......

Sunday, December 13, 2009

नफ़ासतपसंद




कभी झींगा
कभी स्टारफिश
कभी केंकड़ा
कभी शंख-सीपी
कभी संरचना अनाम
फेंक-फेंक-सा देता है
समुद्र
कूड़े-सा किनारे पर
.......................
कचरा कभी अपने साथ
नहीं ले जाता
समुद्र

Saturday, December 12, 2009

शास्त्रीय




कभी मंद
कभी द्रुत
कभी विलंबित
कभी सतत्


कैसा भी गाए
-समुद्र-
पक्का गाता है
.............................

Friday, December 11, 2009

निशाचर समुद्र




सोया भी जा सकता है
समुद्र किनारे
लहरों की लोरियां
सुनते-सुनते.....

मगर क्या यह
समुद्र का मान-भंग
करना न होगा

कोई कैसे
सो सकता है
जब सागर
जाग-आलाप रहा हो


शायद समुद्र
रात को
ज्यादा जागता है....!

Thursday, December 10, 2009

रात पलोलेम की

एक कौंध-सी
दौड़ती है
एक कोने से
दूसरे कोने तक
सफेद,फेनिल बिजली
रोशन करती है
समुद्र-तट
............
जाने क्या ढ़ूढ़ती
फिरती है लहर

Wednesday, December 9, 2009

रंग गोवा के


हरे-कच्च पहाड़
सफेद-नीला पानी
लाल-हरे-नीले
फिरोज़ी-जामनी-पीले
मकान ढलवां-खपरीले
रंग-बिरंगे कलात्मक परिधान
गोरे-सफेद-सांवले लोगो के
आबी-शिहाबी-धानी
रानी-अंगूरी-आसमानी
समुद्री-सीप और शैवाल

उससे ज़्यादा रंगों की शराब
सफेद-ललछोंहे फूल कनेर के
मिलते-जुलते समुद्री रेत से
इन सब पर भारी, आठों याम
बदलते रंग समुद्र के

......................
और मुझ पर है छाया
धूप-हवा-पानी के रस्ते
चेहरे-हाथों- बालों वाला
गहरा होता रंग तुम्हारा

Tuesday, December 8, 2009

साबुत सीप समुद्र से


पलोलेम बीच पर
आज (तक) की
महत् उपलब्धि
मेरे हाथ लगी
एक समुद्री सीप
चिकनी...साबुत...मुक्ताभ...
जाने उसमें क्या है ?
कैसे बोलूंगा ?
मोती !
घोंघा !!
या सिर्फ कनियाँ रेत की !!!
जो हो मैं उसे
कभी नहीं खोलूंगा !!
राज जो अनायास
दिया है समुद्र ने मुझे
कभी उसे नहीं खोलूंगा.....

Monday, December 7, 2009

{ढ़ाई आखर

यार! तुम बड़े साहसी हो

बड़े बेलौस, बिन्दास
अपनी कविताओं को
प्रेम-कविताएँ कह लेते हो
.........................
मैं तो अपनी लेखनी को
कविताएँ कहने में हिचकता हूँ
कविताओं को प्रेम-कविताएँ
इतनी आसानी से तो नहीं
नहीं ही कह सकता हूँ
सच तो यह है,मैं इस
शब्द को अपनी ज़ुबान पर
लाने में डरता हूँ
(और क्या सारी कविताऐं
प्रेम-कविताऐं नहीं होतीं )
...............
दुनिया सच कहती है
मैं अभी भी प्रेम करता हूँ

Sunday, December 6, 2009

आत्मपीड़क


जाने कितनी बार तुम
 दूर गई हो मुझसे
मगर हर बार
मैं तुम्हारी प्रतीक्षा
करता हूँ उसी तरह
वैसा ही तनाव
वैसा ही खुमार सा
वैसा ही अधसोया-अधजागापन
वैसी ही बैरागी बेचारगी
वैसी ही रागात्मक आवारगी
वैसे ही बोल हल्के-हल्के
वैसे ही कदम ढलके-ढलके
वैसा ही प्यार नीले रंग से
वैसा ही बैर बदरंग से
वैसा ही लगाव रोशनी से
वैसा ही दुराव अंधियारे से
जाने कितनी बार
तुम दूर गई हो मुझसे

Saturday, December 5, 2009

मडगाँव




शांत,सुखद
मन को अच्छा लगने-सा
गोवा का एक कस्बा-सा
......मडगाँव.......
नारियल,कटहल के पेड़
होटल के दालान में
छाई ,लटकती
किसी बेल-सा
सुरम्य ठाँव
' यहीं रुको एक और दिन '
कहती है एक खूबसूरत गोवन-सी लड़की
...................................कहाँ जाँव ?

Friday, December 4, 2009

कोंकण( मुम्बई से गोवा)




हरियाले ख़ेत पानी भरे
पहाड़ भी हरे-हरे
मख़मली कालीन बिछी मिट्टी
चारों ओर हरियाली,पानी
पहाड़ और पल-पल आती सुरंगें
उतर जाएं यहीं
डेरा डाल लें
मन में बस गया
कोंकण का शवाब
मगर ,-मुम्बई की ग़र्मी से या
रात्रि –जागरन से-
बोले तो हालत है ख़राब.....

Thursday, December 3, 2009

फिर भी मुम्बई




सैंकड़ों चमचमाते ,बजते,
एक सीध में लटके
स्टील के हत्थे
...........
थोड़ी देर में व्यस्तताएँ(लऊकर)
इन पर लटक जाएँगी
लोकल ट्रेन में

Tuesday, December 1, 2009

नई तरह


अब मुझे फिर से
कविता नजर आने लगी है
दौड़ते वाहन, भागते लोग, धूल-गुबार
तेल भरी हवाएँ, पसीना
सबमें एक लय, एक ताल
सुनाई आने लगी है
बेढंगी चाल, बेढब हाल, खोई सी नजर
असमान साँसें, फिर से
एक तरह पाने लगी है
जंगली घास का छोटा फूल
फुदकती गोरैया, रंग-बिरंगी सब्जियाँ,
आसमान में बनता इंद्रधनुष
सब पर नजर जाने लगी है
अब मुझे फिर से
कविता नजर आने लगी है....

Friday, November 20, 2009

रिचार्जिंग




बारिश के पानी को
छत के परनाले में
एक पाइप लगाकर
छोड़ दिया एक टंकी में
धारदार-तुलतुल-बूंदबूंद
जिस तरह से आए
हो जाए इकट्ठा....
काश ! मैं भर सकूं
खुद को भी इस तरह
.............
मगर आसमान से मेरी छत पर
इन दिनों बरसती है
उदासी झमाझम
कर लूँ संचित !
ढेर चाहे कचरे का हो
मूल्यवान हो जाता है एक दिन
देखा-सुना है
मेरी उदासी भी अर्थवान हो उठेगी
इकट्ठी हो कर......!

Thursday, November 19, 2009

इन्दौर




चक्रवात !
जिसमें होती है
एक केन्द्रित शक्ति
जो घूर्नित होती रहती है
निरन्तर ,ले जाती है किनारे से
अंदर क्रमश और अंदर
पत्तों, फूलों और तितलियों को
सान देती हैं उन्हें
धूल के गुबार की एक अवर्नित वेदना से..
.....................
दूर से देखो तो चक्रवात
कितना खूबसूरत दिखाई देता है
किसी गुब्बारे या फूल के गुच्छे-सा
...............................
कभी आओ इन्दौर तो
चक्रवात की अंदरुनी असलियत देखो

Wednesday, November 18, 2009

रंगत सांवली-सी


जिन लोगों से मिलकर हमें अच्छा लगता है
समझो कि वैसी ही शख़्सियत हमें चाहिए
जिन जगहों पर जाना हमें अच्छा लगता है
समझो कि वैसी ही जगह हमें चाहिए
जिन गीतों को गाना हमें अच्छा लगता है
समझो कि वैसी ही जिंदगी हमें चाहिए
जिन रंगों को देखकर हमें अच्छा लगता है
समझो कि वैसी ही रंगत हमें चाहिए
जिन पर मिट जाना हमें अच्छा लगता है
समझो कि उनका बने रहना ही हमें चाहिए


हिंदी दिवस (!)













विचार

किसी भाषा के
गुलाम नहीं
लेकिन
अपनी भाषा में
सब कुछ
कहना भी आसान नहीं
अपनी भाषा में गाओ, गुनगुनाओ मगर
दूसरी जबान को भी
समझो, सराहो
दिल बड़ा हो तो
तमाम अनुभूतियाँ
दामन थाम लेती है
क्योंकि
सारी नदियाँ
समंदर में विराम लेती है....



Sunday, November 15, 2009

शरद ऋतु






सर्द रात के बाद गुनगुनी सुबह आबाद है
मैं हूँ ,याद है,मौसम औ मन पे शवाब है

आँख है कि खुल के भी मुंदी जाती है
एक हसीन चेहरे का अभी भी ताज़ा ख़्वाब है

वो सामने है पर दिखाई नहीं देता
ज़ुल्फें भी कमबख़्त बन गई हिज़ाब हैं

Saturday, November 14, 2009

पचमढ़ी




लंबे समय के बहाव से
काटे गए गहरे, उथले, ऊँचे-नीचे रास्तों के बीच
रेत, गोल पत्थरों और
हरियाली के छोटे-छोटे टापूओं को चारों ओर से घेरकर
कल-कल बहता रहता है
झरनों से गिरने के बाद
समतल में पानी...
.....


कैसे अपने बहने / होने / बहते रहने को
किसी भव्य चौखट में जड़ी
कलात्मक तस्वीर की तरह
मढ़ देता है हमारे अंदर
मुझे अक्सर होती है हैरानी...।

Friday, November 13, 2009

इन दिनों




सूरज
आग बरसाता है
पारा
चढ़ता जाता है
ऊपर और ऊपर....
लेकिन
मुझे लगता है
दूर कहीं
बारिश हुई है
सौंधी महक आती है
तू
दूर जाती है
और तेरी
ज्यादा याद आती है....

Thursday, November 12, 2009

चलो,बबूल ही सही,मगर....


काँटें,काँटें,काँटें ही नहीं
बारिश के बाद
बबूल पर भी आते हैं फूल पीले
..........
दो थोड़ी-सी नमी तो
पत्थर पर भी
जम जाती है काई हरी
...........
थोड़ा कुरेदो ,भटको तो
रेगिस्तान में भी
खिला मिलता है नखलिस्तान
...............
सहला भर दो
तो दर्द दवा बन जाता है
बदरंग रोंआं रंगीन
बन जाता है
......
मैं भी मुतमइन हूँ
कोई मुझे भी दे
बारिश,नमी,भटकन,सहलन....
इन्सान बना दे

Wednesday, November 11, 2009

ये आँसू-2




इसलिए नहीं कि
तुमसे दूर हो गया हूँ
इसलिए नहीं कि
बरसों-बरस साथ रहने से
आदत हो गई है
इसलिए नहीं कि
तुम वहाँ कैसे,क्या करोगी
जैसे प्रश्न मुझे मथते हैं
इसलिए तो कतई नहीं कि
अब मुझे अपने काम ख़ुद करने होंगे
इसलिए भी नहीं कि
हड़बड़ी के वक्त
चाबी,पर्स,रुमाल,कंघा और मोज़े
ढ़ूढ़ कर कौन देगा
इसलिए नहीं कि
उठेगा
जब बांहो में तूफान
तो जिस्म एक पास नहीं होगा
इसलिए नहीं कि
नींद में मेरा हाथ
उठकर किस पर गिरेगा
इसलिए नहीं कि
मेरे कमीज के बटन कौन टांकेगा
कौन मेरे कपड़े धोएगा
मेरी चिड़चिड़ाहट,मेरा गुस्सा
कौन शांति से सहेगा
इसलिए नहीं कि
बगीचे में होने वाले
छोटे-छोटे परिवर्तन किसे दिखाऊंगा
ग़ुलाब,गुलदाऊदी,गुड़हल या
गुलमोहर का पहला फूल
तेज़ हवा,गहरे बादल,झमाझम बारिश
हरियाते खेत,चारों ओर भरा पानी
अब किसे दिखाऊंगा
रात के खाने के बाद
ज़बरदस्ती,अपने साथ,
अब किसे घुमाऊंगा
(खुद भी शायद ही जाऊंगा )

बल्कि इसलिए कि
.................
...मैं ..तुम्हें..
तुमसे...मैं..
............
कह नहीं पाऊंगा

Tuesday, November 10, 2009

तीस्ता-2


तीस्ता, ओ तीस्ता, ओ तीस्ता
तू संग चले
ओ तीस्ता

मैं चलूँ जिधर
मैं जाना चाहूँ कहीं
तू रोकती मेरा रास्ता
क्या चाहे तू
ज़रा ये तो बता
तीस्ता ,ओ तीस्ता,ओ तीस्ता........

Monday, November 9, 2009

कामायनी

बाहर झंझा ,आँधी,,बिजली,

उनचास पवन, सौ तूफान आएं
मजाल कि हमारे-तुम्हारे
कभी दरमियान आएं
जैसे डूबती नहीं बल्कि
ऊपर और ऊपर उठकर
तैरती रहती है नाव
चाहे झील में कितना ही
पानी,कितने झरने,कितनी ही
धरधराती धाराएँ आएं....



Sunday, November 8, 2009

किस्मत



अपनी तारीख़ में
तारीक के सिवा
कुछ भी नहीं
आपकी तारीफ़ में
तारीख़ के सिवा
कुछ भी नहीं


Saturday, November 7, 2009

मूरत



तू जनता का नहीं

अजन्ता का कवि है
कहता है एक दोस्त
सुनो
समझो कुछ
कितना सही कहता है
अनजाने वो बेचारा

Friday, November 6, 2009

सम्यक्



जो अन्ततःसमुद्र में मिलती है
जिसे हम समझ बैठते हैं
झील या डबरा

हरेक जिन्दगी एक सम्पूर्ण पेय है
जिसे हम समझ बैठते हैं
पानी खारा


वस्तुतः जीवन एक औपन्यासिक कृति है
जिसे हम समझ बैठते हैं
लघुकथा


सबका जीवन एक परंपरा है
जिसे हम समझ बैठते हैं
क्षणव्यथा


अच्छा हो अगर हम पहचान लें
अपने जीवन की
प्रवाहितता, सम्पूर्णता,
औपन्यासिकता और परंपरा
वरना एक सूने, रवहीन, रेगिस्तान में
परिवर्तित हुआ जा रहा है
जीवन हमारा.......




Thursday, November 5, 2009

ख़ज़ाना





तनहाई
हो किसी को काटती
किसी के लिए ख़ला
ख़ाली किसी के लिए
............................
मेरे लिए तो ख़ज़ाना है
क्योकि इन्ही लम्हों में तो
तुम्हारा आना-जाना है
...............


Wednesday, November 4, 2009

आय'म पोयम लवर




कविता
सबसे पहले पढ़ता हूँ मैं

कविता पढ़ना
अच्छा लगता है मुझे
किताबों ,कापियों,पत्रों.पत्रिकाओं
.अख़बारों या दीवारों पे
जहाँ कहीं भी लिखी हो
कविता
पढ़ता हूँ मैं
एक साथ कवि और दुनिया को
समझने का सबसे सरल और
सरस रास्ता
–कविता-
समझता हूँ मैं
सुबह-दोपहर-शाम-रात
सोते-जागते-खाते-पीते
जब भी मिले मौका
-कविता पढ़ने का-
मौका नहीं चूकता हूँ मैं

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