Saturday, November 7, 2009

मूरत



तू जनता का नहीं

अजन्ता का कवि है
कहता है एक दोस्त
सुनो
समझो कुछ
कितना सही कहता है
अनजाने वो बेचारा

Friday, November 6, 2009

सम्यक्



जो अन्ततःसमुद्र में मिलती है
जिसे हम समझ बैठते हैं
झील या डबरा

हरेक जिन्दगी एक सम्पूर्ण पेय है
जिसे हम समझ बैठते हैं
पानी खारा


वस्तुतः जीवन एक औपन्यासिक कृति है
जिसे हम समझ बैठते हैं
लघुकथा


सबका जीवन एक परंपरा है
जिसे हम समझ बैठते हैं
क्षणव्यथा


अच्छा हो अगर हम पहचान लें
अपने जीवन की
प्रवाहितता, सम्पूर्णता,
औपन्यासिकता और परंपरा
वरना एक सूने, रवहीन, रेगिस्तान में
परिवर्तित हुआ जा रहा है
जीवन हमारा.......




Thursday, November 5, 2009

ख़ज़ाना





तनहाई
हो किसी को काटती
किसी के लिए ख़ला
ख़ाली किसी के लिए
............................
मेरे लिए तो ख़ज़ाना है
क्योकि इन्ही लम्हों में तो
तुम्हारा आना-जाना है
...............


Wednesday, November 4, 2009

आय'म पोयम लवर




कविता
सबसे पहले पढ़ता हूँ मैं

कविता पढ़ना
अच्छा लगता है मुझे
किताबों ,कापियों,पत्रों.पत्रिकाओं
.अख़बारों या दीवारों पे
जहाँ कहीं भी लिखी हो
कविता
पढ़ता हूँ मैं
एक साथ कवि और दुनिया को
समझने का सबसे सरल और
सरस रास्ता
–कविता-
समझता हूँ मैं
सुबह-दोपहर-शाम-रात
सोते-जागते-खाते-पीते
जब भी मिले मौका
-कविता पढ़ने का-
मौका नहीं चूकता हूँ मैं

Sunday, November 1, 2009

कोई आखिरी नेपथ्य नहीं होता




प्रकाश-वृत्त में और पर्दे
के आगे खड़ा नहीं
रहना होता हमेशा...
अपनी भूमिका निभाने के बाद
छोड़ना ही होता है
मंच
जाना ही होता है
नेपथ्य में, पर्दे के पीछे
अभिनेता बड़ा हो या छोटा
.............
मगर जिन्दगी नाटक नहीं
यहाँ कोई नेपथ्य नहीं होता
पर्दे के पीछे पर्दे
नेपथ्य के पीछे नेपथ्य
-यही क्रम आगे भी-
बदलते हैं केवल रोल
और यह तो हर कोई है जानता
-बहुरूपियों के लिए
नेपथ्य का कोई
अर्थ नहीं होता-






तीस्ता रे.....!




ओ नदी के धारे !
मैं कब आऊंगा पास तुम्हारे ?

मैंने देखा है एक सपना
मैं रह रहा हूं
एक ऐसी जगह
जहाँ बहती है
तूफानी नदी
मेरे घर के द्वारे.....


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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।