Thursday, December 9, 2010

ज़िन्दगी : पाँच कदम

दो कदम तनहा चले
शुरू में
और बाद के दो कदम
भी अकेले
पाँच कदमों की थी जिंदगी
बीच के उस कदम में
एक साए के कदम भी
साथ मेरे चले

Wednesday, December 8, 2010

स्त्री बनाम पेड़

वृक्ष-सी होती है स्त्री
उगती है किसी आँगन
छाया किसी और आँगन देती है
ताड़-सी बढ़ना
फलो-फूलो
ममता भरी छाँह
ये सारे
रूपक, उपमाएँ
किसी और का नहीं
स्मरण कराते हैं स्त्री का ही
औऱ स्त्री भी निभाती है
इन सभी को बखूबी
तभी तो ताड़-सी बढ़ती अपनी बढ़त को
फुनगी कटवाकर
चुपचाप अपनी
तमाम शिखरीय संभावनाओँ को
कटवा कर
आशीर्वाद पाती है
फलो-फूलो
और कभी इच्छा, कभी अनिच्छा
से फूलती है, फलती है
तानों-उलाहनों के पत्थर मारे जाने पर भी
देती है फल मीठे
फूलती है चंदन-सुवासित गंध-सी
जिसकी सुगंध घर-भर अनुभव करता है
धीरे-धीरे अपनी जड़ें
गहरी जमाकर
वह बन जाती है वट (दादी, नानी, अम्माँ)
और देती है ममता भरी छाँह
और फिर अपनी शिराओं को
लटकाकर जमीन पर भेजती हैं
ताकि फूटे फिर नई कोंपलें
और फिर किसी दिन (हाँलाकि यह नहीं है सुखद)
कटवा कर उसे
बनवा ली जाती है कुर्सियाँ, टेबलें और घर के दरवाजे की चौखटें
स्त्री पुनः आँख, गोद, बाँहें बन जाती है....

इन चौखटों, कुर्सियों, टेबलों में

Monday, December 6, 2010

कब तक यह अंतिम लड़ाई

बस यह अंतिम लड़ाई
और सुख की गोद फिर
किंतु इस सुख के पहले
त्रास कितना
कितना दुख
संघर्ष कितना
जरा बताना
जानता हूँ
बस यही अंतिम लड़ाई
और सुख की गोद फिर
फिर जैसा भी बचूँ
मैं तुम्हारा
क्षत सही, विक्षत सही
घायल और प्यासा सही
चाहूँगा बस
एक मीठी-सी चुभन
और थोड़ा स्नेहोपचार
माथे पर गर्म साँसें और
सीने के करीब प्यार
जानता हूँ बस ये अंतिम लड़ाई
और सुख की गोद फिर
किंतु
कब तक यह अंतिम लड़ाई
और सुख की गोद कब

Saturday, December 4, 2010

चमक-दमक

यार कमल

तेरी स्निग्धता
आब और मधुकोष
देय तो हैं
उसी पंक की
जिससे
ऊब-उबरकर बाहर आया है तू
जो तेरी नियति है
तेरे अस्तित्व का कारण भी
भुलाना चाहे भी तो कैसे
भुलाएगा उसे तू

Friday, December 3, 2010

जैसे खुशबू छूती है फूल को

मैं हर वक्त
देखना चाहता हूँ तुम्हें
जैसे तुम पर छाया रहने वाला आसमान देखता है तुम्हें
जैसे तुम्हारे पैरों तले बिछी जमीन देखती है तुम्हें
जैसे तुम्हारे चारों ओर तनी हुई दिशाएँ देखती है तुम्हें
मेरी आँखे देखना चाहती है तुम्हें
हर उस कोण से जैसे
सारी कायनात और
उसका जर्रा-जर्रा देखता है तुम्हें
मैं हर वक्त छूना चाहता हूँ तुम्हें
जैसे खुशबू छूती है फूल को
जैसे हवा छूती है बदन को
जैसे शरीर छूता है रूह को
जैसे छूती है रोशनी जमीन को
मैं समर्पित होना चाहता हूँ तुम्हें
जैसे अँधेरा ज्योति-किरण को
जैसे जिस्म मीठी चुभन को
जैसे शाम चंदन-बदन को
जैसे खुशबू किसी चमन को

Thursday, December 2, 2010

उसकी किताब

न ये कहानी उसकी
न ये बात उसकी
एक झरोखा-सी बन गई है
एक अदद किताब उसकी
एक पात्र पर वो जा बैठी
एक पात्र मैंने चुना
पात्रों की जुबाँ समझते रहें
वो मेरी
मैं बात उसकी
उसकी छुअन, उसकी गंध
इसी में साँसें उसकी
फड़फड़ा रहे हैं वर्क हवा से
या कँपकँपा रही है जुबाँ उसकी
गाढ़ा कर दिया है कलम से
बहुत-से अल्फ़ाज को मैंने
मेरे खयालों की हमराज
बन गई है किताब उसकी

Wednesday, December 1, 2010

चाँद को गुनगुनाते मैंने सुना है

हौले-हौले गुनगुनाते चाँद को

देर रातों में मैंने कई बार सुना है
सुरमई रातों में जब बादल गहराएँ
बदली के आँचल से जब तारे छिप जाएँ
कभी-कभी हो जब
दीदार चाँद का
तब मीठा-सा मैंने कोई गीत सुना है
हौले-हौले गुनगुनाते चाँद को
देर रातों में मैंने कई बार सुना है
फीकी-फीकी हो चाँदनी जब
ख़ामोश हो फ़िजा सारी
दर्द की एक बस्ती को
आहिस्ता-आहिस्ता मैंने सुना है
हौले-हौले गुनगुनाते चाँद को
देर रातों में मैंने कई बार सुना है
महकी-महकी हो जब रातें
गा रही हो महफ़िल सारी
आकाश के कोने में चाँद को
सिसक-सिसक कर गज़ल गाते मैंने सुना है
तुमने चाँद को कभी
गुनगुनाते सुना है
मैंने सुना है

Wednesday, November 17, 2010

, ज़िन्दगी मुझ पे मेहरबान हो गई .

नवंबर में ऐसी बारिश ,सावन-सी शाम हो गई
ख़ास हो चली थी आदत लिखने की,आम हो गई .


वो कहीं भी रहे , आबाद हूँ, दिल में बसा रहता है

एक गली का क्या, गर गुमशुदा-गुमनाम हो गई .

उसका कद ही नहीं,कदे-सुखन भी है मेरे बराबर
वो मेरा दोस्त है, ज़िन्दगी मुझ पे मेहरबान हो गई .

चल पड़ा है मेरी ओर वो, मुश्किलों मुकम्मल देख लो
बाद न कहना, हम न थे इसी से मंज़िल आसां हो गई .

ये दुनियावी झमेले,दुश्वारियां औ गमे-दुनिया के दरमियां
तुम मिले तो लगा, नेमतों से अब मेरी पहचान हो गई .

Thursday, November 11, 2010

सोई हुई तुम

ये बोझिल पलकें
थका हुआ जिस्म ये पसीना
जैसे झर जाती है पाँखुरियाँ
जैसे राख हो जाती है धूपबत्ती
देर तक खुशबू देकर
देर तक महक कर
...............................
कोई इसे जगाये क्यूँकर
..................................

Wednesday, November 10, 2010

ब्लैक होल

मेरी आँखें
मेरी साँसें
मेरे होंठ
मेरी बाँहें
मेरा रोम-रोम
शायद एक अंधा कुआँ है
या है शायद एक
कृष्ण विवर
जो तुम्हें
हरपल
हर लम्हा
देखकर
छूकर
पीकर
समेटकर
जी-जीकर भी
भरता ही नहीं

Monday, November 8, 2010

तारीफ करता हुआ लड़का

मुझे खुद में इतना कभी मत मिलाओ
कि
मेरी तारीफ
प्रशंसाओं पर तुम
खुश न होओ
भर-भर न जाओ
मुझे बहलाने के लिए मत कहो
‘हाँ, ठीक है ना’
या कि बस इतना भी न कहो
‘बहुत पागल हो तुम’
हाँ मैं पागल हूँ मगर
जो तारीफ मैं तुम्हारी करता हूँ
यकीन मानो
तुम उसके लायक हो
मेरे द्वारा
तुम्हारी की हुई तारीफ
सचमुच तुम्हारी व्यक्तिगत उपलब्धि है
मेरा प्यार नहीं
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
मगर
प्रशंसा
अलहदा चीज है
यकीन मानो
यह प्रत्युत्पन्न है
मुझे खुद में शामिल समझो मगर
इतना ही कि
तुम्हारी आँखों
होंठों
बालों
रंग की तारीफ करता हुआ
यह लड़का
तुम्हारी नहीं
इन सुंदर चीजों की
तारीफ कर रहा है
जो सचमुच सुंदर है

तुझको तो ख़बर नही मगर,एक सादा-लौह इंसान को....*

तुम्हारा नाम नहीं ले सकता
बस तुम्हारा
बाकी सब नाम
महज शब्द हैं मेरे लिए
मगर
रूप
रस
गंध और
ध्वनि
प्रकटती है बस इन्हीं शब्दों से
जो तुम्हारा नाम है
बाकी सब नाम
महज यथार्थ है मेरे लिए
महज क्षण, क्षणिक मगर
भूत
भविष्य
वर्तमान
स्मृति, कल्पनाएँ और दृष्टि
जुड़ती है बस उसी नाम से
जो तुम्हारा है
बाकी सब नाम
महज पढ़ती है आँखें
मगर
आँख
कान
नाक
त्वचा
और रोम-रोम
पुलकता है बस उसी नाम से
जो तुम्हारा है
..........
देख लो !
प्यार ने मुझे परंपरागत
लजीली भारतीय स्त्री बना दिया


                                                       *( साहिर लुधियानवी से साभार )

Saturday, November 6, 2010

तर्क, तर्क, तर्क.....

क्यों जकड़ लिया जाता हूँ
मैं
एक पगलाए अहम में
नहीं छू पाती तब
मुझे
जीवन की सहज बातें
प्यार का औदात्य
तुम्हारी देह गंध
बस मैं होकर रह जाता हूँ
एक दिमाग
स्वचालित और आत्मकेंद्रीत
तर्क, तर्क, तर्क
पगलाए पर बुद्धि पगे
(या मात्र आवेश से सने, आवेग से लदे)
तुम्हें झुकाने को
(या शायद स्वयं जीत जाने को)
आतुर तर्क
कहाँ चला जाता है
मेरा बड़ापन
त्याग, समर्पण नशा
 और सब पर आकाश की तरह
छा सकने वाला प्यार
..................
................
और यकायक
मुझे छूती है
तुम्हारी खुशबू
मुझे घेर लेती है
तुम्हारी थरथराती पलकें
खींचते हैं तुम्हारे दाँत और मसूड़े
और लो मैं फिर बन जाता हूँ वैसा
जिसे कह सको तुम
‘बहुत पागल हो’

झर जाती हैं पाँखुरियाँ

बहुत उदासी में
झर जाता है सुख
न जाने कब
जैसे झर जाती हैं
पाँखुरियाँ
गुलदान में रखे
फूलों से
....निःशब्द.......

Friday, November 5, 2010

देखता हूँ तुम्हारी आवाज़

मैं देखता हूँ तुम्हारी आवाज़ को
तुम्हारे होंठ
खुलते हैं, फड़फड़ाते हैं
चौड़े होते हैं, सिकुड़ते हैं
मिलते हैं, खिलते हैं
आगे को आते हैं, पीछे जाते हैं
दाँतों से टकराते हैं
जुबाँ के उपर-नीचे
हिचकोले खाते हैं
मैं तुम्हें देख रहा हूँ बस
तुम बोल रही हो
शब्द-दर-शब्द
शायद इनका कोई अर्थ भी होगा
मगर मैं सुन रहा हूँ
वो अर्थातीत सौंदर्य
जो तुम्हारे होंठ
फूल से खिलकर
बरसा रहे हैं
प्रतिपल-प्रतिक्षण
और लो
तुम नाराज हो रही हो
कि मैं तुम्हारी बात नहीं सुन रहा हूँ
हे भगवान ! (यदि तुम हो तो)
इसे कुछ समझाओ

Thursday, November 4, 2010

इन दिनों.....

तुम्हारे होंठों से
झरते हैं शब्द
टप-टप-टप
महकती है फिज़ा लकलक
मैं साँस-साँस में
महसूस करता हूँ
गुलाब, चमेली, रजनीगंधा और कनेर
और न जाने क्या - कुछ
जो तुम्हारी साँसों से
महकता है
ढेर-ढेर

Tuesday, November 2, 2010

तरीके

जीना चाहती हो तुम भी
हरपल, हर क्षण
हर लम्हा मेरे साथ
मगर अंतर है
हम दोनों की जीवन-शैलियों में
तुम मेरे साथ जीना चाहती हो
मैं तुम्हारे पास
हर घड़ी, हर पल, हर लम्हा
और ये अंतर मामूली नहीं
इसके दोनों ओर खड़े हैं
दो जीवन-दर्शन
दो प्रकृति
दो इरादे
दो सुख
(और)
मगर एक लक्ष्य...
.....प्यार...

Monday, November 1, 2010

डॉन क्विग्जोट

खुद को
इतिहास में
देखने के लिए
तुमने क्या नहीं किया
चेहरे बदले
कद को तराशा
कभी इधर, कभी उधर
कभी तटस्थ हैं हम
दुनिया को बतलाया
कभी हँसे, कभी रोए
कभी हँसाया-रूलाया
गोयाकि हरसंभव कोशिश की
मगर बड़ा जालिम
निकला इतिहास
तुम्हारा नाम उसमें
शामिल किया भी तो
विदूषकों की सूची में
(खैर गलती किससे नहीं होती,
अभी अगला संस्करण भी तो निकलेगा इतिहास का)

Monday, October 25, 2010

यूँ होता तो क्या बुरा होता!

देर तक साथ-साथ
जागते-पढ़ते-लिखते
उठते सुबह (!)
आठ साढ़े आठ, कभी नौ साढ़े नौ बजे
पीते चाय चुस्कियाँ लेकर
अखबार देखते
तुम बनाती चपाती सब्ज़ी
पराठे, अचार का नाश्ता करती
सद्य स्नाता निकलती
अपने बालों से
झरती बूँदें लिए
मैं थोड़ी-सी गार्डनिंग कर आता
या टिफिन भरने में तुम्हारा हाथ बँटाता
ठंडे पानी से नहाता
टाई कौन-सी पहनूँ
पूछता हुआ शर्ट के बटन लगाता
तुम्हें छोड़ता हुआ
तुम्हारे दफ्तर
मैं भी काम पर चला जाता
दो-चार पीरियड पढ़ाते न पढ़ाते
चार का वक्फ़ा हो जाता
तुम्हें लेता हुआ
घर आता
(बेशक, थोड़ी देर रास्ते में रूककर
 फल खरीदने की तुम्हारी आदत पर थोड़ा झुँझलाता
 मगर चुपचाप नीचे उतरकर तुम्हारे पास आ जाता)
शाम हसीन होती हमारी
दिन भर की बातों पर गप लगाते
तुम्हारे-मेरे साथ
काम करने वालों की मिमिक्री बनाते
चाय-कॉफी थोड़ा ठंडा-गर्म हो जाता
फिर दूर तक निकलते
हम इवनिंग वॉक पर
लाते खरीदकर
नर्सरी से मौसमी फूल
फल के पौधे
कुछ जमीन पर
बाकी ग़मलों में
तुम्हारे हाथ से उन्हें लगवाता
शाम की एक सब्जी मैं बनाता
सलाद तुमसे कटवाता
तीसरी रोटी खाते-न-खाते
तुम्हें बुलाता
तुम्हारे लिए थोड़ी टेढ़ी ही सही
गरम रोटी मैं बनाता
डिनर करते हुए देखते
टीवी में खबरें
बहस दुनिया भर की
कहानी घर-घर की
कभी फिल्म कभी गेम-शो
कभी म्यूज़िक, डांस का प्रोग्राम कभी
रिमोट हमेशा
तुम्हें पकड़ाता
रविवार...
होता सचमुच छुट्टी का दिन
पूरी छुट्टी तुम्हें लेकर मैं मनाता
लाँग ड्राइव पर निकलते कभी हम
कभी फिल्म का कार्यक्रम बनाते
घूमते देर तलक मॉल में
फिर किसी अच्छी-सी
होटल में डिनर कराता (कैंडल लाइट होती, बड़ा मज़ा आता)
लौटते देर रातों में हम घर को
जूही चमेली की सुगंध से
तब तक लॉन महक जाता
तुम लगाती गज़लें पुरानी या क्लासिकल
मैं इंस्ट्रूमेंटल
अपनी गोद में तुम्हें लेटाया
मैं गुनगुनाता (अक्सर होता इसका उल्टा भी,
 तुम्हारी गुनगुनाहट पर मैं कान लगाता)
...................................
जीवन फूल-सा होता
महकता-गमकता-खिलता
बस चुटकियों में निकल जाता
मगर यूँ हो ना सका
मैं तुम्हारे
तुम मेरे इंतजार में
देर-देर तक
करते है काम अलग-अलग
जाते हैं अलग-अलग जगह
अलग-अलग समय
सुबह का नाश्ता
दिन का खाना
अलग-अलग करते हैं
जैसे लिख दिया है इंतजार
और विरह
स्थायी भाव की तरह
किसी ने नसीब में
लम्हा-लम्हा, कतरा-कतरा हम जीते हैं
साथ-साथ हैं
मगर कहाँ साथ-साथ रहते हैं?
कहाँ एक दूसरे के साथ जीते हैं?
(यूँ कहना भी क्या ग़लत है कि दूरियों में
तिल-तिलकर हम थोड़ा-थोड़ा रोज मरते हैं)

Saturday, October 23, 2010

मैं चैन से रह नहीं सकता

कोई आग़ोश में लेता है

मुझमें जादू-सा जगाता है
मैं आदमी बन बैठा फक़त
मुझे फिर इंसाँ बनाता है
एक शिखर पर पहुँचते ही
तलहटी की राह दिखाता है
मैं चैन से रह नहीं सकता
हरदम याद दिलाता है
मेरी गिरह में हैं कारूँ
मुझे कर्ण बनाता है
राम का कद उतना ही
रावण बढ़ता जाता है
दुनिया अजीब गोरखधंधा
मन उचटा जाता है



Thursday, October 21, 2010

मुद्दत हुई

गुजारे नहीं लम्हें अपने साथ
देर तक जागकर
लिखी नहीं नज़म
बिना दूध की
तुर्श चाय नहीं पी नींबू डालके
मुद्दत हुई
गुजारे नहीं दिन
तुम्हें याद करके
कुछ सोकर
कुछ खाकर
फिर सोकर
सपनों से सपनीले दिन
सरदर्द होने तक सोए रहने के
खाली कम खर्चीले दिन
मुद्दत हुई
गुजारे नहीं
बस अपने होने को
सहने-सहते रहने वाले दिन
...................................
मुद्दत हुई
तुम अकेला छोड़कर कहीं नहीं गई
सुनो! क्या अब सचमुच कभी मुझे अकेला नहीं छोड़ोगी?

Wednesday, October 20, 2010

transformation

कुछ कविताएँ

मेरे अंदर
कहानियाँ बन जाती हैं
कुछ कहानियाँ
कविता बनकर
मुझमें घर कर जाती है
कुछ कविताएँ
चोला चढ़ाकर
मूर्तियाँ बन जाती हैं
कुछ कहानियाँ
झटक कर अपना सारा स्थूल
महज सुगंध
बन जाती हैं

Tuesday, October 19, 2010

धूप क्वांर-कार्तिक की

धूप झिलमिलाती है
नए पैटर्न बनाती है
छा जाती है छत पे
पापड़-बड़ियाँ सुखाती है
रोशनदानों से छनकर
कोनों को महकाती है
खुली खिड़कियों में समा
दरवाजे को मुँह चिढ़ाती है
मेरी कलम पर उतर
कविता लिखवाती है
आ जाओ घर-जल्दी-
साँझ हुई जाती है
धूप क्वांर-कार्तिक की
मुझे तुझ-सा बनाती है

Sunday, October 17, 2010

नीलकंठ

जब
दुःख पीकर
और खुशी बाँटकर
जिए,
तो गहरा कहा
जाएगा तुझे





Saturday, October 16, 2010

हम सारे कोलाज

एक खंड यहाँ से,
एक वहाँ से उठा,
टुकड़ों के इस सु(!)मेल से,
रचा गया है, मुझे, तुम्हें...
हम सबको...
हर कण की, हर खंड की...
ठहरी अलग प्रकृति अपनी
कोई संस्कृति, सभ्य पुरुष-सा,
कोई नराधम, अनाचारी,
कोई अजब, अमित स्वरूप-सा
कोई विकृत अविनासी
इन सबको जोड़ा गया
है, एक सूत्र में,
मैं भी इसी तरह
तुम भी इसी तरह
हम सारे कोलाज...
(कोलाज – उपयोगी, अनुपयोगी वस्तुओं को जोड़कर बनाई गई नई आकृति)
इसीलिए तो हममें
कुछ है मोम-सा नर्म...
कुछ है पाषाण-सा कठोर...
कुछ मधु-सा मीठा और
कुछ तमस का कटुकर...
इन सबके कॉकटेल से,
मैं भी बना हूँ,
तुम भी बने हो,
हम सारे कोलाज....।

Thursday, October 14, 2010

केवल कविता नहीं

कैसे उसको कविता कह दूँ केवल जो मेरी अविकल आहों का
जो मेरी अधूरी तृष्णाओं का लुटा हुआ खजाना है,
कैसे उसको कविता कह दूँ?
जिनसे छिपी मेरी पीड़ा है,
जिनमें छिपा मेरा मरघट-गान
जो मेरी यादों का,
महका हुआ वीराना है
कैसे उसको कविता कह दूँ?
जहाँ मैंने प्राण लुटाए,
जहाँ मैंने पाया जीवन,
जिनसे मेरे जीवन का
उलझा ताना-बाना है,
कैसे कहूँ कविता?
नहीं, नहीं यह कविता नहीं,
मेरे जीवन की सत्य कहानी है,
गीले नयनों से गा-गाकर
मुझे ही जिसे सुनानी है।

Tuesday, October 12, 2010

क्यों

क्यों जिए जा रहा हूँ मैं – क्यों? जीवन की राहों में,
है कितने कंटक और प्रस्तर-खंड,
घिसट-घिसट अपनी देह को,
अनजानी मंजिल पर लिए जा रहा हूँ क्यों?
क्यों जिए जा रहा हूँ – क्यों?
मैं अंतर्मन में छटपटाहट
मुख पर छद्म स्मित ओढे,
जीवन के इस रंगमंच पर, निरंतर
अभिनय किए जा रहा हूँ – क्यों?
क्यों जिए जा रहा हूँ मैं क्यों?
महत्वाकांक्षा को सहेजे,
दिवास्वप्नों को समेटे,
हृदय और आँखों में,
आशाएँ सजा रहा हूँ क्यों?
क्यों जिए जा रहा हूँ मैं क्यों?

Sunday, October 10, 2010

जब तुम नहीं होती हो

बहुत खामोश है फ़िज़ा, बड़ी उदास शाम है
यादें हैं, और खोई-सी आँखें हैं
गोकि तुम नहीं हो शहर में।
खाली दीवार से टकराकर,
आँखें खोजती है जाने क्या,
फिर ले आती है, एलबम-सा कुछ,
तस्वीरें अनवरत बोलती जाती है,
कुछ या दिखलाती है,
दर्द जगाती है,
बेचैनी बढ़ाती है,
तुम्हारी याद दिलाती है, ये भी कि
तुम नहीं हो शहर में।
आलम-ए-तनहाई है,
गहराती रात है,
धुँधला-सा चाँद है
फीकी-फीकी तारों की बारात है।
जज़्ब दिल के सारे जज़्बात है
क्योंकि तुम नहीं हो शहर में।
कितनी बेजार है, महफिलें,
बेमानी है हँसी, और माहौल,
बदरंग है सारे हँसी मंजर,
सब कुछ बदल गया है जब बदले
दिल के हालात हैं।
तुम नहीं हो शहर में
जा रहा हूँ मैं कहाँ,
ये कौन-सा मकाम है।
ये राहें हैं कौन-सी, कौन-से ये मोड़ हैं,
अजनबी सब लोग हैं,
अजनबी है रास्ते
कौन-सी गलियाँ है, कौन से मकान है
अजनबी ये शहर है, जब
तुम नहीं हो शहर में।
ना रंग है, ना राग है
ना महफिलें, ना ख्वाब है
ना गज़ल है ना नज़्म
कभी कोई टूटा-सा शेर,
आता है यक-ब-यक,
गम-ए-शायर के बदले
हालात हैं,
तुम नहीं हो शहर में।

Friday, October 8, 2010

तुम्हारे लिए




तुम्हारे लिए – अपने आसपास
इतनी इकट्ठी
कर ली थी
उदासी
कि
जब खुशी का मौसम आया
तो
हँसने
के लिए
मेरे पास
नहीं बची थीं
एक कतरा
हँसी भी।

Wednesday, October 6, 2010

आस्तिक

सीने के बजाय सिर से लगाया
तुम्हारी किताब को –!
यार, तुम न हुए
खुदा हो गए !

Tuesday, October 5, 2010

मेले में...

मुक्त अकेलापन –

और मैं।

क्या सचमुच अकेलापन

मुक्त होता है?

नहीं, वह

निर्युक्त है

आबद्ध है

एक अकुलाहट भरी

प्रतीक्षा में।

Monday, October 4, 2010

नियति

दर्द हर बार मिला
और ताउम्र साथ रहा,
खुशी हरदम मिली,
मगर साथ रही पल-छिन

Sunday, October 3, 2010

अज़ीब

दूर रहता हूँ तो
यकीं-सा रहता है
रह सकता हूँ दूर भी
मिलने पर क्यों ऐसा लगता है अक्सर
कि रोज-रोज क्यों
न मिलता रहा....


Wednesday, September 15, 2010

पीली तितलियाँ


अब भी दिख जाती है
तितलियाँ
रंग-बिरंगी,
कलात्मक पंखों और
टेक्सचर वाली
मगर,
कहाँ गईं वे
सादे पीले रंगवाली
आदिम तितलियाँ
जो झुंड-का-झुंड
बैठी रहती थी
चुपचाप
पुवाड़ियों की हरी झाड़ियों की
कतारों में
पीले फूलों के बीच
उन्हीं-की-सी होकर
और पास जाते ही
उड़ जाती थीं
निःशब्द, नीरव, अनायास
सपनों की यादों-सी
..................................
जैसे उड़ गया है
मॉल की आकर्षक महँगी डिश के बीच से
पंजी-दस्सी में स्कूल के बाहर मिलने वाले
समोसे और चटनी वाली पपड़ी का स्वाद
.......................................
मुझे पीली तितलियाँ और
खस्ता पपड़ियाँ
अब ज्यादा याद आती है

Friday, September 10, 2010

खंडकाव्य(!)

तुम बिन मेरी शाम
बहुत शांत होती है, बहुत ख़ामोश...
कहीं कोई हलचल नहीं,
कोई जुम्बिश नहीं,
मगर मैं, सिर्फ मैं जानता हूँ
कि यह शांति नहीं सन्नाटा है...
तूफान के आने के पहले की
शांति-सा...।
मौन, निस्तब्ध यामिनी
यह अच्छी तरह समझती है,
कि हर तूफान के पहले
ऐसी ही शांति होती,
मरघट की शांति...
ज्यों-ज्यों शाम गहराती है,
मन की परतें खुलती जाती है
अनवरत... धीरे-धीरे...
प्याज़ के छिलकों की तरह...
चेतन पर हावी होता
जाता है अवचेतन
विवेकानंद पर हावी
होता है फ्रायड...
गोर्की पर कामू...
टॉलस्टाय पर युंग...
प्रेमचंद पर सार्त्र
मैं सोचता हूँ-
मेरा पतन हो रहा है,
मगर तभी कानों में
गूँजता है गीतासार
और आँखों में उभरता है,
कृष्ण का साँवला-सलोना,
चंचल चेहरा,
जो उद्घोषणा करता है
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मैं अलसा जाता हूँ
तभी आते हैं विवेकानंद
और कहते हैं
‘उतिष्ठ जागृत प्राप्य वरान्निबोधत्’
मगर जागने के लिए
सोना जरूरी है
सोने जाता हूँ, तो
रॉबर्ट फ्रॉस्ट कहता है
सोने से पहले कोसों चलना है...
मैं चल पड़ता हूँ
अनंत, अनवरत, अथक,
महायात्रा पर...
ठीक किसी अलसाए भौंरे की तरह
किसी थकी मंद समीर की तरह,
मगर कोई भी यात्रा
नहीं पहुँचाती किसी मंजिल तक,
मगर फिर भी मैं रोज
स्वीकारता हूँ,
अंतहीन सफर की
इस नियति को,
क्योंकि मुझे लगता है,
कोई और भी है – जो चल रहा है-
अंतहीन सफर में, यायावर की तरह
ठीक उससे पहले, जबकि नींद अपने
आग़ोश में मुझे देती है
चंद घंटों की मौत...
मैं सोचता हूँ
कि जीत जाते हैं अंतत:
दकियानूसी संस्कार...
परंपराएँ, रूढ़ियाँ...
फ्रायड, कामू, सार्त्र
हार जाते हैं,
जीत जाते हैं
टैगोर, गाँधी
प्रेमचंद...।


अनुवाद


ओ अदृश्य! मैं कर रहा अनुवाद
तुम्हारे जिए हुए जीवन को, पलों को, अनुभूतियों को...
देखो,
जीवित हो उठे फिर से एक बार वो क्षण
मगर
इस बार अपनी भाषा में, नहीं
मेरी भावनाओं में, जो अवर्ण हैं...
क्योंकि उन क्षणों को
भोगा हूँ मैंने आज
जो महसूस गए थे उन दिनों, तुम्हारे द्वारा
ओ अनाहत! मैं तो पुकार रहा हूँ
महज इसलिए;
कि तुमने भी मेरी तरह ही
देखा होगा ये सब,
तो ओ हम निगाह (एक दृष्टि)
आओ एक रूह (एकात्मा)
हो जाए। अस्पृश्य, आज तक, मगर अब
मैं तुममे, तुम मुझमें
और हम दोनों
डूबती हुई इस शाम में
खो जाएँ, खो जाएँ...

Wednesday, September 8, 2010

तुम

तुम मेरे जीवन में सबसे
ऊँची, गहरी, सबसे
भारी!
नहीं यह तेरेपन की जीत,
न ही यह मेरेपन की हार
सब कुछ लगता पूर्व नियोजित
बनना है जिसका हमको
अधिकारी।
कभी करके जिनको या
दिन जाया करते थे बीत
आज वे कोसों मुझसे दूर
लिया तुमने सबसे मुझको जीत।
बँटा था मैं कितने टुकड़ों में हाय
तुमने लिया मुझे सहेज
दिया व्यक्तित्व नया औ’ प्रीत
स्वीकारो इसे मेरे ओ’ मीत।

Monday, September 6, 2010

डायरी




तुम मेरी डायरी हो,
डायरी बिना क्या मैं!
तुम मेरी लायब्रेरी हो,
लायब्रेरी बिना क्या मैं!
तुम मेरा सृजन हो,
सृजन बिना क्या मैं!
तुम मेरा चिंतन हो,
चिंतन बिना क्या मैं!
तुम मेरी कल्पना हो,
कल्पना बिना क्या मैं!
तुम मेरा वजूद हो,
वजूद बिना क्या मैं!
तुम मेरी ‘तुम’ हो,
तुम्हारे बिना क्या मैं!

मेरे काव्य-संग्रह 'मुझे ईर्ष्या है समुद्र से' के विमोचन की टीवी न्यूज.

Sunday, September 5, 2010

एकाकी पीड़ा


अकेलेपन की छाया में मेरी पीड़ा एकाकी
अपने से ही बात करूँ,
अपने सुख-दुख का हाल कहूँ,
अपने घावों को खुद देखूँ।
अपनी पीड़ा गाऊँ
अकेलेपन की छाया में मन
मेरी पीड़ा एकाकी
सत्य के क्षितिज तक पहुँचकर
अंतिम सत्य शून्य ही पाता,
कह नहीं ‘सच अंतिम’, क्यों
बार-बार मैं दोहराता
अकेलेपन की छाया में मन
मेरी पीड़ा एकाकी।एकाकी है तन-मन
मंजिल मेरी एकाकी,
बस दो पल साथ मिला;
बाकी जीवन एकाकी।
अकेलेपन की छाया में, मन
मेरी पीड़ा एकाकी!!
कितनी दूरी तय कर ली,
कितना त्रास भोग चुका,
नहीं मील का पत्थर पथ में,
जो बतलाए- कितना चलना है बाकी।
अकेलेपन की छाया में, मन
मेरी पीड़ा एकाकी।।

Saturday, September 4, 2010

संस्कार

वे अपना कोट
नहीं उतारेंगे
भले गर्मी बढ़ गई हो-
क्योंकि
पुरानी और बेरंग कमीज़
का प्रदर्शन करे,
इतना साहस किसी का
नहीं होता।

Friday, September 3, 2010

मुझे ईर्ष्या है समुद्र से



मैं नहीं छीन रहा हूँ
तुम्हारे अंदर निहित
संभावनाओं को, तुम्हारी आशाओं
आकांक्षाओं या महत्वाकांक्षाओं को
अब भी
यही सब कुछ
इसी तरह होगा, जैसा तुम चाहोगी
बस
मुझे तुम्हारा
समुद्र के पास जाना
अच्छा नहीं लगता
मैं समुद्र से ईर्ष्या करता हूँ
उसमें तुम्हारी उदासी
या आँसू नहीं
हमारी-तुम्हारी बनाई काग़ज़ की नाव
बहाना चाहता हूँ
पता है, समुद्र से बुरा नहीं हूँ मैं
यही बात तुम्हें
बताना चाहता हूँ।

Thursday, August 12, 2010

तरक्की के कटघरे

मैदान खाली हैं और पब भरे हैं
ये हमारी तरक्की के कटघरे हैं

सड़क पे जख़्मी पड़े से वास्ता नहीं
सोशल साइट्स पर दोस्त भरे पड़े हैं

शादियाँ नाशाद करती है शाद नहीं
लिव-इन हमारी तहजीब के मकबरे हैं

हमें अपने मज़हब से वास्ता नहीं
गैरों को इसमें रास्ते दिख पड़े हैं

उम्मीद की तरह जगमगाता है वो
लोग उसके रास्ते पर चल पड़े हैं

Saturday, August 7, 2010

तब शायद इस तरह होता

तुम निकाल देती
अपनी युवावस्था
पढ़ाई में; लायब्रेरी में; विश्वविद्यालयों के गलियारों में।
मोटी थीसिस के पन्ने
पर पन्ने पलटाकर, संदर्भ ग्रंथों में सिर खपाकर
बड़े मनोयोग से अपनी एक नई थीसिस
तैयार कर लेती;
जो मौलिक और सराहनीय
होती;
तुम डॉक्टर हो जाती।
तुम्हारे नाम के आगे जुड़ी इस
उपाधि के साथ ही
जुड़ चुका होता
पदनाम
बहुत संभव है
तुम किसी कॉलेज में लेक्चरर हो जाती;
तुम अपने लॉन में मौसमी
फूलों के सदाबहार बोनसाई
और कैक्टस उगाती,
कोनों पर गुलदाऊदी और
मनीप्लांट लगाती;
दूब की विभिन्न प्रजातियों पर
अपने सहयोगियों से
चर्चा करते हुए तुम
कोई हरी, मखमली
विदेशी दूब मँगाती
सुबह चाय पीते समय
अखबार पर नजरें दौड़ाती,
अपनी बिल्ली (या कुत्ते)
को सहलाती;
फिर इठलाती फिज़ा और
रेशमी सुबह को धता
बताकर अपने
मकां में घुस जाती
(अपने उस मकान में बड़ी शान से तुम ‘मेरा घर’ बतलाती)
और जब बाहर आती तैयार होकर
तो तुम्हारे व्यक्तित्व के अनुरूप
तुम्हारे शरीर पर
वस्त्र होते,
तुम्हारे रंगों का चयन
वैसा ही अभिजात्य और
परिष्कृत होता।
कॉलेज में तुम धाराप्रवाह पढ़ाती
सहयोगियों से राजनीति पर,
साहित्य और मनोविज्ञान
पर खूब बतियाती
कभी खूब गंभीर भी हो जाती,
छात्राएँ तुम्हें सम्मान
सहयोगी स्नेह
और अधिकार
तवज्जो देते;
वहाँ से लौटकर
तुम फिर अपने घर आती
(चलो मैं तुम्हारे ही स्वर में कहे देता हूँ)
कुछ थकी-थकी कुछ
कुम्हलाई-सी
नौकर (या नौकरानी)
तुम्हारे लिए कॉफी बनाते;
उतनी देर में तुम
आँखें बंद कर सुस्ता
चुकी होती,
कॉफी पीते समय तुम्हारी
बिल्ली (या कुत्ता)
तुम्हारे कदमों में लौटता
तुम प्यार से उसे –
अपने पास बिठा लेती
उसके बाद तुम
रिकॉर्ड पर कोई पुरानी धुन,
किसी परिचित या दोस्त द्वारा
भिजवाया कोई नया
रिकॉर्ड सुनती
ग़ुलाम अली, जगजीत या
गुलज़ार को,
तुम्हारे पास निस्संदेह कुछ
विदेशी रिकॉर्ड भी होते,
जिन्हें तुम कभी नहीं सुनती,
या कभी मेहमानों के स्तर (!) के
अनुरूप उन्हें लगा देती
मेहमानों को विदा करते समय
तुम ना देख पातीं कि
दोपहर ढल गई है,
शाम हो आई हो
तुम्हारी कनपटियों के
पास के बालों की
सफेदी और आँखों
पर चढ़ा चश्मा
परिचायक होता इसका;
लेकिन अपवाद तुम
फिर भी होती,
उम्र के प्रभाव से ना
चिढ़चिढ़ाती, ना
रूखी हो जाती, ना
झुँझलाती, बल्कि और
शांत और गंभीर
हो जाती
तुम्हारे गंभीर चेहरे पर जब
कभी एक सरल, मृदुल
मुस्कान फैल जाती
तो देखने वाले
अवाक रह जाते; और
दूसरों को तुम्हारी
मिसाल बतलाते।
बेहिचक तुम समाज में
विदूषी भद्र
अनोखी महिला के
नाम से जानी जाती,
पुरूष तुम्हें (और तुम्हारी शोहरत को) हसरत भरी
और महिलाएँ ईर्ष्या
भरी निगाहों से देखती,
चारों और तुम्हारी
सहजता, सरलता और
कीर्ति की बातें होती।
लेकिन, साल में दो-एक बार
तुम
जब भी छुट्टियों में
समुद्र किनारे जाती, ( जाती ना? मैं जानता हूँ अवश्य)
तो किसे पता चलता
कि देर-देर तक
तट की रेत पर बैठकर
तुम आती-जाती लहरों को
देखा करतीं,
उदासी और अकेलेपन में डूबकर
देर रात तक अँधेरों से ग़ुफ़्तग़ूं करतीं,
किसे पता चलता कि
क्या-क्या तुम
समुद्र में बहा आती
किसे पता चलता कि
कर्मरत् और मजबूत रहने के लिए समुद्र से सम्पूर्णता को
लेकर, बदले में तुम क्या दे आती
सब तो ही समझते तुम लंबे प्रवास से आई हो।

 

Thursday, August 5, 2010

तुम्हें देखना

‘तुम दूर
बैठे
क्या देख रहे हो’ मैंने पूछा
‘मैं ? तुम्हें’ तुमने
उसी क्षितिज की ओर
देखते हुए कहा।
‘कैसे, मैं तो तुम्हारे पीछे हूँ’
अच्छा देखो—
वहाँ दूर
जहाँ आसमान भी है,
सागर भी है
और अँधेरा भी,
(वही सब कुछ जो तुम्हें अच्छा लगता है)
इन सबको एक साथ देखना
क्या तुम्हें देखना
नहीं है?

Wednesday, August 4, 2010

निर्विकार

दुनिया
तब भी बिल्कुल वैसी थी,
जब मैं नहीं था,
व्यस्त, निर्विकार और तटस्थ, जैसी आज है- !
जब मैं हूँ।
दुनिया तब भी वैसी ही रही,
जब इस व्यस्त, निर्विकार, तटस्थ
दुनिया में मैं
डूब गया
मुझे आत्मसात कर लिया
गया कृष्ण विवर बनकर
और तब दुनिया तब भी वैसी ही रही
जब अपनी अस्तित्वहीनता के विरुद्ध
मोर्चा खड़ा कर मैंने चुनी
तनहाई और सोचा
छोड़ दी मैंने दुनिया।
दुनिया तब भी वैसी ही रही
दुनिया तब भी वैसी ही रहेगी,
जब मैं नहीं रहूँगा।

Saturday, July 31, 2010

तुम सोचती हो


पर्दे के आर-पार

आँखों पर पड़े
गुलाबी पर्दे के उस ओर
देख रहा हूँ – स्पष्ट –
दूर नहीं है- मेरा यथार्थ-
कठोर-सा (कटु नहीं मगर)-
ठोस (मगर असंवेदन नहीं)।
ऐ बताओ।
तुम्हारी आँखों के आगे क्या है?
(पर्दे (!) का रंग औ’ उससे परे)
-----
जवाब (जो, मैंने सोचा, तुम सोचती हो)
ना कोई पर्दा ना
रंग कोई
ना परे कुछ
मेरी आँखें
देख रही है
सामने तुम हो,
बस तुम....
तुमसे पहले
तुमसे परे, बस तुम....।

एक से हैं मिलन और ज़ुकाम...


बूझो तो?
-जब-
सब कुछ बेमजा,
बेरंग, बेमतलब
दिखलाई दे,....।
आँखों के आगे धुँधलाया
आलोक, सूनापन और गहराई हो....।
साँसों में उखड़ेपन
की गरमाई हो....।
स्वाद
स्वेद कण हो माथे
पर,
नासिका पुटों से
नीर झरे
-तब-
समझ लो
कुछ और नहीं
वह सर्दी है

Friday, July 30, 2010

कॉफी हाउस के कोने में…

यार
अकेले कोने!
कबसे,
बता
कब से
तू था
प्रतीक्षा में
मेरी...?
या कि
सचमुच था भी!
वैसे, पता तो तुझे होगा
कोई आएगा
कभी
और
बनेगा साथी
तेरा कुछ क्षण को,
और फिर
हो जाएगा संपृक्त

Wednesday, July 28, 2010

अक्सर

बहुत उदास हो जाता है
मन
सोचकर
कि अब जाना है
फिर जगमगाती है
अँधेरे में
एक किरण
कि इन्ही कदमों से
वापस....

Wednesday, July 21, 2010

तुम एक नज़्म हो


1

सपनों से बहुत दूर रहती
हूँ मैं,
और ख़ौफ़ज़दा भी,
इसलिए न आते हैं,
न आने देती हूँ
अपने करीब इन्हें
2
तुम एक ख़्वाब हो
ऐसा ख़्वाब,
जिसे देखने को
मेरी आँखें मुझे
इजाज़त नहीं देती
3
तुम मेरे हाथ में हो,
और सोच रही हूँ
ख़्वाब जब हाथों में आते हैं, तो
हाथों को ये डर
क्यूँ बना रहता है
कि पकड़ कहीँ
ढीली ना हो जाए
कभी-कभी दिल करता है
तुम्हें सारी
दुनिया को दे दूँ
सारी दुनिया में
तुम्हें देख

सोच रहा हूँ तुम शायरा होती, तो
कभी चुपके से तुम्हारी इन
नज़्मों को पढ़ता
क्या हुआ गर जो तुम
शायरा नहीं,
मैंने जान लिया हैं तुम्हें
कि कितनी मासूम,
संजीदा, जज़्बाती
औ’ खूबसूरत
नज़्में हैं, तुम्हारे अंदर...
वो नज़्में तुम ना सही
मैं लिखूँगा,
और तुम्हारे तसव्वुर को
शक्ल दूँगा लफ़्जों की...
क्या हुआ जो तुम शायरा नहीं
देखो मैं-तुम
हमख़याल, हमराज़
हमजज़्बा तो हैं
तुम कह नहीं सकती
मगर मैं समझ सकता हूँ
तुम्हें,
तुम एक ऐसी नज़्म हो
जिसे पढ़ा नहीं
समझा जा सकता है
महसूसा जा सकता है
और मैंने तुम्हें पूरी
शिद्दत से समझा,
महसूसा है।
कितना जहेनसीब हूँ,
एक नज़्म को अपनी
आँखों में सजाया है
मैंने ख़्वाब की तरह,
मेरे आसमान में तुम
हो
किसी सतरंगे इंद्रधनुष की तरह
आसमान की
पाक आयतें
शफ़क की खूबसूरत नज़्म
मेरे मौसम में तुम हो
कोंपल की तरह बसंत की
पहली नज़्म - ।
मेरे आँगन में तुम हो
ताज़ा गुलाब की तरह
फूलों की
महकती नज़्म - ।
मेरे समंदर में तुम हो
हर आती-जाती
लहर की तरह
साहिल की हमसफर नज्म - ।
क्या हुआ जो तुम
शायरा नहीं - ।
तुम खुद एक नज़्म हो
आसमान से उतरी
किसी परी की तरह
मेरे बचपन की
मासूम नज़्म....।
तुम एक नज़्म हो, जो
शाया हुई है
तुम्हारी शक्ल में...।
मैंने तुम्हे जाना है अमिता

Sunday, July 18, 2010

बेसाख़्ता लिख देता हूँ कोई नज़्म...

तन्मयता के इन पलों में
 तुम पास होती

तो देखती, मुझे क्या हो जाता है
एक लहर- सी उठती है
गुलाबों की खुशबू-सी मदभरी
अंदर औ’बाहर धूपबत्ती की गंध-सी तुम
समेट लेती हो मुझे अपने में!
एक सिहरन, एक कंपन
और कुछ अद्भुत, अनिर्वचनीय
सा हो जाता है, मन...
इन पलों की अनुभूतियाँ
मुझे अभिभूत कर देती हैं
मैं रोमांचित हो उठता हूँ
फिर उस नशे से में
मैं उठा लेता हूँ अपनी कलम
और बेसाख़्ता लिख देता हूँ कोई
नज़्म...
मगर लिखने के बाद भी यही सोचता हूँ
काश! तुम होती, उस पल
जब एकाएक सिहर-सा गया था मैं
एक कँपकँपी, एक रोमांच, एक शांति
एक नशा... एक निर्वेद, जाने क्या-क्या देख लेती तुम
आह! तुम ही तुम याद आ रही हो,
 ये मुझे क्या हो रहा है?
जाने क्या?

Saturday, July 17, 2010

महातत्व है पैसा।


आश्चर्य!
अंत में हर चीज
बदल जाती है
पैसे में....।
नाते, रिश्ते, दोस्ती
प्यार और महत्वाकांक्षा
सबका
सबब एक ही
बचता है
पैसा।
पद, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा
प्रशंसा और पराक्रम
अंत में
चाहते हैं
पैसा।
व्यवसायी, अधिकारी
नेता, अभिनेता, कलाकार
और कवि
सब हो पाते हैं
रूपांतरित...
पैसा, पैसा, पैसा।
भौतिकी या खगोलिकी।
विज्ञान है, कला है
या कि कुछ और
कि हर विषय बदल जाता है
वाणिज्य में,
पैसे में...।
हवाएँ, बर्फ, पहाड़
नदियाँ और पेड़
सब पूँजीभूत, संघनित
संगठित हो जाते हैं
पैसे में...।
पंचतत्व सब हो जाते हैं
विलीन
इस एक तत्व में....
ऐसा महातत्व है पैसा।

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