Wednesday, January 27, 2010

आशंका



टूट न जाऊँ कहीं सदा को डरता है मन

वक्त के नटखट हाथों में
जर्जर तन है आहत मन
कुछ न कुछ है रोज टूटता
चाहे तन हो चाहे मन
टूट न जाऊँ...
तिनके-तिनके जुटा जतन से
अपना नीड़ बनाया था
तेज झोंकों से न बिखेर
पवन इसे दे डरता है मन
टूट न जाऊँ...
अपनी मीत बनाया जिसको
तोड़ा हर दम उसी ने मुझको
किसको आज कहूँ अपना
जब मनमीत हुआ दुश्मन
टूट न जाऊँ...
अपने पंखों के बल पर
कब तक मैं उड़ पाऊँगा
अभी तो है शुरुआत सफर की
फैला है सीमाहीन गगन
टूट न जाऊँ...
बीच भँवर में मेरी नैया
तुम डूबोना जो चाहो
तन मेरा डूबो दो चाहे
नहीं डूबेगा मेरा मन
टूट न जाऊँ...
निराशा की तिमिर निशा में
क्या समझे डर जाऊँगा
अब भी बचा हूँ कुछ तो नीरव
किया भले सब कुछ अर्पण
टूट न जाऊँ

3 comments:

  1. बहुत खूब । मन के भय को अच्छा दर्शाया आपने ।

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  2. सुंदर रचना ......बहुत खूब !!
    http://kavyamanjusha.blogspot.com/

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  3. बहुत सुन्दर रचना...प्रवाहमयी!

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।