Saturday, April 24, 2010

पशु का तन जीता


असमंजस में ही वक्त गँवाया
युग बीते कुछ ना लिख पाया
मन की कल्पना शक्ति ने
जब भी कोई ख्बाव बुना
उलझनों से टकरा कर हरदम
उसने अपना सिर धुना
कवि के भावुक मन से हाय
पशु का तन जीता
भावों के इस तट पर रहा
मेरा गागर रीता
असमंजस में ही वक्त गवाँया
युग बीते कुछ ना लिख पाया
कई बार दिल ने चाहा
गेसू तले रात बिताना
श्यामल तन से लिपट कर
मधुर-सा एक गीत गाना
मन की इच्छा से हाय
नियति का दानव जीता
गीतों-गज़ल दूर छंदों
से भी रहा अछूता
असमंजस में ही वक्त गवाँया
युग बीते कुछ ना लिख पाया
दोस्तों ने बहुत उकसाया
स्नेही जनों ने ढाँढस बँधाया
मेरे अंतर्मन ने ही
लेकिन मेरा न कुछ साथ निभाया
अपनों के अपनेपन से
गैरों का बेगानापन जीता
भाग्य को समझा, कर्म को जाना
बिना पढ़े मैंने गीता
असमंजस में ही वक्त गवाँया
युग बीते कुछ ना लिख पाया

Friday, April 23, 2010

तृष्णा बनकर आए कोई


कोई आए-सहलाए मेरे घावों को
जर्जर तन था पहले ही
उस पर ये असीम प्रहार
बना निर्दयी जब जग सारा
लगता कोई नहीं हमारा
कोई आए-सहलाए मेरे घावों को
युग बीते कुछ न लिख पाया
खालीपन जीवन में छाया
प्रेरणा बनकर आए कोई
भर जाए जो रिक्त भावों को
कोई आए-सहलाए मेरे घावों को
कुछ भी अच्छा लगता नहीं
कोई आस, कोई अरमां, उमंग नहीं
तृष्णा बनकर आए कोई
जागृत कर दे मेरी इच्छाओं को
कोई आए-सहलाए मेरे घावों को
खुद पर ही प्रतिबंध लगाकर
बैठा हूँ निषेध द्वार पर
निर्भय बनकर आए कोई
तोड़े जो सब वर्जनाओं को
कोई आए-सहलाए मेरे घावों को

Thursday, April 22, 2010

दो बूँद हमें भी दो साकी


रोशनी की मधुशाला से
दो बूँद हमें भी दो साकी
माना उजियारा है तेरे आँगन
तेरे आँगन है दीपों की बारात
कवि के मन अंबर में
लेकिन तिमिर निशा है बाकी
रोशनी की मधुशाला से
दो बूँद हमें भी दो साकी
है याद तुझे तेरे आँगन
उजियारे की खातिर
मन को जलाकर अपने
राह तुझे दिखलाई थी
इस भटके राही को मंजिल तक
पहुँचाने की अब तेरी बारी साथी
रोशनी की मधुशाला से
दो बूँद हमें भी दो साकी
मैं यदि उजियारा पाऊँ
तो तुमको उजियारा दूँ
नवगीत लिखूँ, लयबद्ध करूँ
नेह-रश्मियाँ तुम पर बरसाऊँ
मुझको मेरे हिस्से की दो मधु
नीरव मतवाला हो  ताकि

Wednesday, April 21, 2010

प्रीत की प्रत्याशा

रे कवि अब बदल ले
अपनी कविता की भाषा
जिसके लिए तू जनम भर
दर्द को पीता रहा
जिनके लिए तू जनम भर
अश्क बन जीता रहा
देख वो मनमीत तेरे
देख वो हमप्रीत तेरे
तेरे घावों पर नमक छिड़क
मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं
क्या अब भी रखता है तू
इनसे प्रीत की अभिलाषा
जिनके लिए तू जनम भर
कोयल बन गाता रहा
जिनके लिए तू जनम भर
मधुगीत बनाता रहा
देख वो ही तेरे साथी
देख वो ही तेरे प्रीतम
तेरी डोली के आगे
मर्सिया गा रहे हैं
क्या अब भी रखता है तू
इनसे मधुगीत सुन पाने की आशा
जिनके कदमों के निशां से
तू कदम अपने मिलाता रहा
जिनकी राहों में हरदम तू
दिल अपना बिछाता रहा
देख वो हमराह तेरे
देख वो हमराज तेरे
चौराहे पर तुझे खड़ा कर
अपनी मंजिलों को जा रहे हैं
क्या अब भी रखता है तू
इनसे प्रीत की प्रत्याशा

Tuesday, April 20, 2010

रंग अपना बदलना छोड़ दो

मुझको भाता बहुत है साथ तनहाइयों का
हो सके तो मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो
था नाजुक मगर मुझसे टूटा नहीं
काँच का ये खिलौना अब तुम्हीं तोड़ दो
तुम चले राह अपनी मैं अकेला खड़ा
इस मुसाफिर को भी अब कोई मोड़ दो
कोई भी दो खिलौना बहल जाऊँगा
मगर यूँ न कहो मचलना छोड़ दो
जुर्म तुमने किए हमने उफ न किया
नहीं प्यार का यह तरीका इसे छोड़ दो
दिन बदलते है नीरव सबके एक दिन
हर घड़ी रंग अपना बदलना छोड़ दो

Sunday, April 18, 2010

किसके लिए, किसके लिए


लिखूँ किसके लिए, किसके लिए
जिसे लुभाने की खातिर साक़ी बन
मधुमय मधु गीतों को गाता रहा
उसने मुझे विषघट समझ कर
दूर नीरव अधरों से किया
रोऊँ किसके लिए, किसके लिए
जग जो मुझे संताप दे
दर्द दे हृदय पर आघात दे
उनको समझता रहूँ अपना
क्यों अश्रु हँसी में ढाल लूँ
करूँ, किसके लिए, किसके लिए
जिसको समझकर धर्म अपना
मैंने अनवरत पालन किया
जग ने अपनी परिभाषा से
उस कर्म को अधर्म कहा
डरूँ किसके लिए, किसके लिए
अंत के जिस फासले को
बनाए रखा था निरंतर
वो प्रारंभ से साथ मेरे
मुझपर दया से मुस्कुराता रहा
मरूँ किसके लिए, किसके लिए
अपनी छाती को बना ढ़ाल
जिसके हेतु अग्निशर खाता रहा
वो मीत मेरा पीछे खड़ा
कुटिलता से मुस्कुराता रहा
लिखूँ किसके लिए, किसके लिए

मन से दूर


खोज कर ला दे कोई उन्हें
जो चले गए हैं मन से दूर
उन बिन जीवन ऐसे लगता
मानों शरीर बिन प्राण
उन बिन जीवन ऐसे लगता
मानों नौका बिन सागर
खोज कर ला दे कोई उन्हें
जो चले गए हैं मन से दूर
कल जहाँ था कोलाहल
आज वहाँ नीरवता छाई
पायल की झंकार हुई गुम
बजता नहीं कोई नूपुर
खोज कर ला दे कोई उन्हें
जो चले गए हैं मन से दूर
प्यासे को न दो हलाहल
मयकश को न रखो दूर मधु से
जीवन जिसका हो मदहोशी
उसे रहने दो नशे में मग़रूर
खोज कर ला दे कोई उन्हें
जो चले गए हैं मन से दूर

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।