Saturday, May 15, 2010

तब हुई कोई कविता

विरही के यादों के मौसम में
रिमझिम बरसते सावन में
दो बूँद मिली हो अश्रु की
ऐसा संगम जब-जब हुआ
तब हुई कोई कविता
हिरण-से इस चंचल मन ने
स्मृति वन में दौड़ लगाई
कहीं ठहर दो लम्हे काटे
ऐसी जब कोई ठौर मिली
तब हुई कोई कविता
तनहाई के सूने क्षण में
बेचैन के दर्द भरे आलम में
पायल की झंकार बजी कोई
वंशी कहीं मधुर सुनी कोई
तब हुई कोई कविता
भीड़ भरे इस जंगल में
बेगाना हर शख्स मिला
सुकुन कितना मिला नीरव
जब कोई अपना-सा मिला
तब हुई कोई कविता
कल्पना ने जब ख्वाब बुना
कवि के खयालों में लिपट कर
ऐसा अद्भुत मिलन हुआ
खुशी रोई दर्द से लिपटकर
तब हुई कोई कविता

मैं दागदार चाँद हूँ गगन का


रे मीत, प्राण की यह बीन बजना चाहती है
इस तरह से प्रणय हुआ संभव कहीं है
संस्कार मुझसे छूटने वाले नही
और तू नहीं लाज तजना चाहती है
रे मीत, प्राण की यह बीन बजना चाहती है
इस तरह आराधन भी अच्छा नहीं है
मैं निरा-निपट पाषाण और
तू देव मूरत गढ़ना चाहती है
रे मीत, प्राण की यह बीन बजना चाहती है
चकोर-सी यह अभिलाषा सच्ची नहीं है
मैं दागदार चाँद हूँ गगन का और
तू निर्मल चाँदनी का स्नान चाहती है
रे मीत, प्राण की यह बीन बजना चाहती है
अपराधी पर इतना विश्वास भी अच्छा नहीं है
मैं गुनाहों का देवता ठहरा और
तू मुझसे पुण्य कर्म चाहती है
रे मीत, प्राण की यह बीन बजना चाहती है

Friday, May 14, 2010

भूल गया हूँ, तब से खुदा को


रोको चाहे मुझको जीने से
मत रोको यारों पीने से
गम बढ़ता है जीने से
खलिश मिटती है पीने से
पीकर एक लम्हा जीना है अच्छा
बिन पिए बरसों जीने से
कैसे रिंद हो जो डरते हो
नशीली नजरों से पीने से
काफिर मुझको कहते हैं, लोग
बंदगी मेरी, तेरे हाथों पीने से
भूल गया हूँ, तब से खुदा को
लगा जबसे हूँ तेरे सीने से
रोको चाहे मुझको जीने से
मत रोको यारों पीने से

Thursday, May 13, 2010

तब तलक गम को सहेजूँ


दर्द को समेटू कहाँ तक
कब तलक गम को सहेजूँ
जार-जार रोता है दिल
रक्तिम है हर कोना
कोई मरहम, मैं पाऊँगा
मुश्किल लगता ऐसा होना
दर्द को समेटू कहाँ तक
कब तलक गम को सहेजूँ
तज इसे सकता नहीं मैं
साथ निभ सकता नहीं
मजबूर है हालात इतने
खुल कर रो भी सकता नहीं
दर्द को समेटू कहाँ तक
कब तलक गम को सहेजूँ
काश ऐसा हो सके कि
फैल जाए दामन मेरा
फिर जी भर समेटू
बचा जो दर्दों गम तेरा
दर्द को समेटू कहाँ तक
कब तलक गम को सहेजूँ
चल रहा हूँ यह सोचकर
वह मुकद्दस वक्त आए
दूर कहीं किसी क्षितिज पर
मिलन तुझसे हो ही जाए
दर्द को समेटू वहाँ तक
तब तलक गम को सहेजूँ

Monday, May 10, 2010

मधु ऋतु


दूर कहीं कोयल बोली
वीरान पड़ा था कब से गुलशन
तितली, भँवरे, माली थे चुप
तनहा-तनहा लगता मौसम
ऐसे में यह मधुबोली
दूर कहीं कोयल बोली
कलियाँ मुस्काएँगी अब
बहारें आएँगी गुलशन में
भँवरे फूलों पर मँडराएँगें
होगी फूलों संग आँख-मिचौली
दूर कहीं कोयल बोली
खुशनुमा होगा हर लम्हा
मधु ऋतु होगी बगियन में
खुशबू से सराबोर होंगी साँसें
रंगों की सजेगी रंगोली
दूर कहीं कोयल बोली
फूलों के संग होगी बातें
कलियों संग कटेगी रातें
स्मित होगी हर अधर पर
नयनों में होगी  नीरव बोली
दूर कहीं कोयल बोली

मिलन यामिनी का सुख-सार भूला

मैं मिलन यामिनी का सुख-सार भूला
मादकता भूला साकी नयनों की
मधु की मदहोशी भूला
प्यालों की खनक पायल झंकार
मधुबाला की डपट-दुलार भूला
मैं मिलन यामिनी का सुख-सार भूला
कंचन देह की द्य़ुति भूला
साँसों में महकता कचनार भूला
चपलता भूला मृग नयनों की
ओंठो से हुआ अभिसार भूला
मैं मिलन यामिनी का सुख-सार भूला
याद उसे कब कर पाऊँगा
याद उसे कब आऊँगा
दूर बैठा कहीं, मीत मन का
मैं उसे, शायद वह भी है मुझको भूला
मैं मिलन यामिनी का सुख-सार भूला

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।