Saturday, July 31, 2010

तुम सोचती हो


पर्दे के आर-पार

आँखों पर पड़े
गुलाबी पर्दे के उस ओर
देख रहा हूँ – स्पष्ट –
दूर नहीं है- मेरा यथार्थ-
कठोर-सा (कटु नहीं मगर)-
ठोस (मगर असंवेदन नहीं)।
ऐ बताओ।
तुम्हारी आँखों के आगे क्या है?
(पर्दे (!) का रंग औ’ उससे परे)
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जवाब (जो, मैंने सोचा, तुम सोचती हो)
ना कोई पर्दा ना
रंग कोई
ना परे कुछ
मेरी आँखें
देख रही है
सामने तुम हो,
बस तुम....
तुमसे पहले
तुमसे परे, बस तुम....।

एक से हैं मिलन और ज़ुकाम...


बूझो तो?
-जब-
सब कुछ बेमजा,
बेरंग, बेमतलब
दिखलाई दे,....।
आँखों के आगे धुँधलाया
आलोक, सूनापन और गहराई हो....।
साँसों में उखड़ेपन
की गरमाई हो....।
स्वाद
स्वेद कण हो माथे
पर,
नासिका पुटों से
नीर झरे
-तब-
समझ लो
कुछ और नहीं
वह सर्दी है

Friday, July 30, 2010

कॉफी हाउस के कोने में…

यार
अकेले कोने!
कबसे,
बता
कब से
तू था
प्रतीक्षा में
मेरी...?
या कि
सचमुच था भी!
वैसे, पता तो तुझे होगा
कोई आएगा
कभी
और
बनेगा साथी
तेरा कुछ क्षण को,
और फिर
हो जाएगा संपृक्त

Wednesday, July 28, 2010

अक्सर

बहुत उदास हो जाता है
मन
सोचकर
कि अब जाना है
फिर जगमगाती है
अँधेरे में
एक किरण
कि इन्ही कदमों से
वापस....

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।