Friday, September 10, 2010

खंडकाव्य(!)

तुम बिन मेरी शाम
बहुत शांत होती है, बहुत ख़ामोश...
कहीं कोई हलचल नहीं,
कोई जुम्बिश नहीं,
मगर मैं, सिर्फ मैं जानता हूँ
कि यह शांति नहीं सन्नाटा है...
तूफान के आने के पहले की
शांति-सा...।
मौन, निस्तब्ध यामिनी
यह अच्छी तरह समझती है,
कि हर तूफान के पहले
ऐसी ही शांति होती,
मरघट की शांति...
ज्यों-ज्यों शाम गहराती है,
मन की परतें खुलती जाती है
अनवरत... धीरे-धीरे...
प्याज़ के छिलकों की तरह...
चेतन पर हावी होता
जाता है अवचेतन
विवेकानंद पर हावी
होता है फ्रायड...
गोर्की पर कामू...
टॉलस्टाय पर युंग...
प्रेमचंद पर सार्त्र
मैं सोचता हूँ-
मेरा पतन हो रहा है,
मगर तभी कानों में
गूँजता है गीतासार
और आँखों में उभरता है,
कृष्ण का साँवला-सलोना,
चंचल चेहरा,
जो उद्घोषणा करता है
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मैं अलसा जाता हूँ
तभी आते हैं विवेकानंद
और कहते हैं
‘उतिष्ठ जागृत प्राप्य वरान्निबोधत्’
मगर जागने के लिए
सोना जरूरी है
सोने जाता हूँ, तो
रॉबर्ट फ्रॉस्ट कहता है
सोने से पहले कोसों चलना है...
मैं चल पड़ता हूँ
अनंत, अनवरत, अथक,
महायात्रा पर...
ठीक किसी अलसाए भौंरे की तरह
किसी थकी मंद समीर की तरह,
मगर कोई भी यात्रा
नहीं पहुँचाती किसी मंजिल तक,
मगर फिर भी मैं रोज
स्वीकारता हूँ,
अंतहीन सफर की
इस नियति को,
क्योंकि मुझे लगता है,
कोई और भी है – जो चल रहा है-
अंतहीन सफर में, यायावर की तरह
ठीक उससे पहले, जबकि नींद अपने
आग़ोश में मुझे देती है
चंद घंटों की मौत...
मैं सोचता हूँ
कि जीत जाते हैं अंतत:
दकियानूसी संस्कार...
परंपराएँ, रूढ़ियाँ...
फ्रायड, कामू, सार्त्र
हार जाते हैं,
जीत जाते हैं
टैगोर, गाँधी
प्रेमचंद...।


अनुवाद


ओ अदृश्य! मैं कर रहा अनुवाद
तुम्हारे जिए हुए जीवन को, पलों को, अनुभूतियों को...
देखो,
जीवित हो उठे फिर से एक बार वो क्षण
मगर
इस बार अपनी भाषा में, नहीं
मेरी भावनाओं में, जो अवर्ण हैं...
क्योंकि उन क्षणों को
भोगा हूँ मैंने आज
जो महसूस गए थे उन दिनों, तुम्हारे द्वारा
ओ अनाहत! मैं तो पुकार रहा हूँ
महज इसलिए;
कि तुमने भी मेरी तरह ही
देखा होगा ये सब,
तो ओ हम निगाह (एक दृष्टि)
आओ एक रूह (एकात्मा)
हो जाए। अस्पृश्य, आज तक, मगर अब
मैं तुममे, तुम मुझमें
और हम दोनों
डूबती हुई इस शाम में
खो जाएँ, खो जाएँ...

Wednesday, September 8, 2010

तुम

तुम मेरे जीवन में सबसे
ऊँची, गहरी, सबसे
भारी!
नहीं यह तेरेपन की जीत,
न ही यह मेरेपन की हार
सब कुछ लगता पूर्व नियोजित
बनना है जिसका हमको
अधिकारी।
कभी करके जिनको या
दिन जाया करते थे बीत
आज वे कोसों मुझसे दूर
लिया तुमने सबसे मुझको जीत।
बँटा था मैं कितने टुकड़ों में हाय
तुमने लिया मुझे सहेज
दिया व्यक्तित्व नया औ’ प्रीत
स्वीकारो इसे मेरे ओ’ मीत।

Monday, September 6, 2010

डायरी




तुम मेरी डायरी हो,
डायरी बिना क्या मैं!
तुम मेरी लायब्रेरी हो,
लायब्रेरी बिना क्या मैं!
तुम मेरा सृजन हो,
सृजन बिना क्या मैं!
तुम मेरा चिंतन हो,
चिंतन बिना क्या मैं!
तुम मेरी कल्पना हो,
कल्पना बिना क्या मैं!
तुम मेरा वजूद हो,
वजूद बिना क्या मैं!
तुम मेरी ‘तुम’ हो,
तुम्हारे बिना क्या मैं!

मेरे काव्य-संग्रह 'मुझे ईर्ष्या है समुद्र से' के विमोचन की टीवी न्यूज.

Sunday, September 5, 2010

एकाकी पीड़ा


अकेलेपन की छाया में मेरी पीड़ा एकाकी
अपने से ही बात करूँ,
अपने सुख-दुख का हाल कहूँ,
अपने घावों को खुद देखूँ।
अपनी पीड़ा गाऊँ
अकेलेपन की छाया में मन
मेरी पीड़ा एकाकी
सत्य के क्षितिज तक पहुँचकर
अंतिम सत्य शून्य ही पाता,
कह नहीं ‘सच अंतिम’, क्यों
बार-बार मैं दोहराता
अकेलेपन की छाया में मन
मेरी पीड़ा एकाकी।एकाकी है तन-मन
मंजिल मेरी एकाकी,
बस दो पल साथ मिला;
बाकी जीवन एकाकी।
अकेलेपन की छाया में, मन
मेरी पीड़ा एकाकी!!
कितनी दूरी तय कर ली,
कितना त्रास भोग चुका,
नहीं मील का पत्थर पथ में,
जो बतलाए- कितना चलना है बाकी।
अकेलेपन की छाया में, मन
मेरी पीड़ा एकाकी।।

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।