Saturday, January 8, 2011

अजीब विडंबना है...

हज़ारों हज़ार बरस से चमक रहा है सूर्य
तुम्हारी संवेदना की ओजोन परत अब भेद पाया है
अब तुम्हें सूरज की रोशनी
तेज से तेजतर लगने लगी है
अब नोटिस किया है तुमने सूर्य को
जबकि बेचारा सूर्य
अब मद्धम हो चला है
ठंडी हो चली है, उसकी आग
अपने शिखर से उतर चला है, वह
अजीब विडंबना है,
 उसके बुढ़ापे में तुमने उसे समझा है
तुम्हारी समझ में समा न सका
जब वह अपने यौवन पर था
अजीब विडंबना है
जाने कब से लिख रहा हूँ मैं
और तुम्हारे मन को अब छू पाया हूँ
अब तुम्हें मेरा लिखा
अच्छा और गहन
समझ आने लगा है
अब तुम्हें लगा है कि
एक युवा अपनी पहचान बना रहा है
मगर यह मेरा यौवनकाल नहीं
मेरा प्रौढ़ि-प्राप्तिकाल है
तुम हँसोगे मेरी पच्चीस की उम्र जानकर
मगर क्या करूँ
मेरे लेखन ने जो यात्रा तय की है
उसमें दिन-रात से महत्वपूर्ण मेरे अनुभव थे
जो मुझे परिपक्व करते रहे
अजीब विडंबना है
मैं अब समाजोन्मुख हो चला हूँ
और अब मुझे तुम ‘रोमेंटिक’ समझ रहे हो

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।