जीवन की अनसुलझी पगडंडियों पर चलते-चलते
कभी-कभी भर जाता है मन
गहरे अवसाद से
छा जाता है यह अवसाद
दिलो-दिमाग पर
अमावस के तम की तरह...
मन में अजीब-सी रिक्तता, खालीपन और कुहरा
एक वितृष्णा-सी
सब कुछ अजनबी देश की तरह पराया-सा
किसी अनजानी देह की गंध-सा
सर्वत्र छितराया-सा लगता है
ऊब हो जाती है सबसे
अपनी किताबों से
डायरी से
फोटा अलबम
प्रेमिका के पत्रों औऱ निशानियों तक से
उन आँखों से भी
जो मैंने अपनी
राइटिंग डेस्क के सामने लगा रखी है
कहीं दूर जाने
भाग जाने को
मन करता है
बाहर निकलकर भी
चैन आता नहीं
चिड़ियों की चहचहाहट
यूँ लगती है ज्यूँ कानों में डाल दिया हो
सीसा पिघला हुआ
किसी परिचित की स्निग्ध मुस्कुराहट
शरीर बेधती-सी लगती है
सड़कों पर
दैनिक कार्यकलापों में व्यस्त भागती-दौड़ती जिंदगी
कीड़े-मकोड़ों सी मालूम होती है
हाय, हलो, अभिवादन
बेमानी, रस्मी, निहायत बचकाने मालूम होते हैं
मैं मुँह फेर लेता हूँ
यह जानते हुए भी कि
मैं यह ठीक नहीं कर रहा
तब बड़ी झल्लाहट होती है खुद पर
लगता है कल तक
मैंने जो कुछ जिया
नाटक था... ओढ़ा हुआ
आज मैं अपने प्राकृत रूप में हूँ
स्वाभाविकता के निकट
मगर सामाजिकता भी तो कोई चीज है
अंदर से एक आवाज आती है
चुप हो जाओ
मैं बेतहाशा चिल्ला उठता हूँ
चुप हो जाओ
मुझे सर्वत्र जंजीरों से जकड़ना ही अगर सामाजिकता है
तो मैं इसी क्षण
तीन शब्द कहने को तैयार हूँ
तलाक... तलाक... तलाक
न मैं खुलकर हँस सकता हूँ
न रो सकता हूँ
न गा-सीटी बजा सकता हूँ
क्योंकि ये तुम्हारी
शालीन संस्कृति के विरूद्ध है
संस्कृति... ऊँह... मेरे होंठों पर विद्रूप-सी
मुस्कान फैल जाती है
सड़ी-गली परंपराओं के
दलदल पर बिछा
मखमली कालीन...
इस कालीन पर पैर रखते ही
धँस जाता हूँ
गहरे बहुत गहरे
और तब
जबकि
डूब रहा होता हूँ
सोचता हूँ
अकेला ही क्यों मरूँ
बुला लूँ अपने दोस्तों को
नाते-रिश्तेदारों को
परिचितों को
अगली पीढ़ीयों को
इसलिए लिख देता हूँ
जीवन का अंतिम सत्य यही है
यही मोक्ष है
पुरुषार्थ है