Wednesday, June 29, 2011

रेत का घर है अपना


राह में लपटें बिछी हैं काग़ज़ी पाँव के नीचे
संभल कर चलें कितना आखिर तो है चलना
प्यार है समंदर से लहरों से बचना मगर लाज़मी
साहिल से दूर जाएँ कैसे रेत का घर है अपना
दौड़ते दिखते हैं मगर कहीं पहुँचते नहीं
ये वो लोग हैं दुबले होना है जिनका सपना
दोस्ती नहीं, मुहब्बत नहीं  कोई रंजिश भी नहीं
फख्र से कैसे कहें ये शहर है अपना
जहाँ कद नहीं वजन हो नाप आदमी का
तुम्हारा शौक तुम्हें मुबारक मुझको रास नहीं ये दुनिया

Tuesday, June 28, 2011

खरे सिक्के और क़ाग़ज़ी नोट


वो खरे थे
भारी थे
पोढ़े थे
सो पड़े रहे
ये काग़ज़ी थे
हल्के थे
अनुकूल थे
चलते रहे, चलते रहे
एक दिन
ये रद्दी हुए
और फिर फटे
गायब हो गए
हमने सोचा
अब वो आएँगें
देर से सही मगर
खरे सिक्के सराहे जाएँगें
मगर हाय
वो चले न चले
और पुराने की जगह
ये नए आ गए
नोट फिर सिक्कों पर छा गए
मगर दोस्त
गिला मत करना
ये मत समझना
सिक्कों की कोई
औकात नहीं
ये बाजार में चले ना चले
सहेजे जाएँगें
तुम न सही
तुम्हारे बच्चों
उनके बच्चों
और उनके बच्चों द्वारा
पूजे जाएँगें
नोटों का क्या है
वो तो आएँगें-जाएँगें
मगर हजारों साल बाद भी
जो इतिहास को
इस युग से
संस्कृति से
परिचित कराएँगें

Monday, June 27, 2011

कैसे भी हम मिलें


मिट्टी
स्वर्ण
मोमियाँ
लौह
काग़ज़ी
कैसा भी हो दीप
दीप की जंग एक-सी होती है
जग
जीवन
गली
डगर
घर
कहीं जले दीप
दुनिया में
उजाले की गंध एक-सी होती है
गीत
कविता
नज़्म
कथा-कहानी
कहीं चले
कलम
स्याही की
रोशनाई एक-सी होती है
तुमसे
उससे
उससे
सबसे
कहीं-किसी से
जले नेह का दीप
मन की उमंग एक-सी होती है
ख़त
खबर
संदेसा
मैं आऊँ
तुम्हें बुलाऊँ
कैसे भी हम मिले
मिलन की तरंग एक-सी होती है

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।