Monday, December 10, 2012

स्वर्ण-सद्रश्य

दुख
जब तुम्हारे पास आया
औरों की तरह
तुमको उसने सिर्फ छुआ नहीं
उत्तरोत्तर
तपाया,सुखाया, जलाया
.................
इसमें ज्यादा अचरज की नहीं
दुख भी
सही पात्र पर अपना हाथ आजमाता है
जिसमें सह लेने की क्षमता हो
इस पर ही होता है तारी
.............................
जलती है केवल वही लकड़ी निर्धूम
जिसने कड़ी धूप में सूखकर
कर ली हो पहले ही तैयारी
.....................
ईमानदारी से
दुख अपना फर्ज निभाता है
जिसकी नींव हो मज़बूत
उसी ढाँचे को अपना घर बनाता है.

Thursday, November 1, 2012

तुम्हारी मौजूदगी के मायने


सब सामान्य था...
पहले-पहले जब देखा घना जंगल,
खामोशी को खटखटाती हवा,
कानों में रस घोलती कोयल, पपीहा, झींगुर और टिटहरी,
सघन वन में घास की सरसराहट,
कल-कल बहती नदी, उसमें
दीखते किनारे के प्रतिबिंब
गोल-गोल पत्थर,
सब पहले से था, ऐसा ही,
तुम्हीं ने पहले-पहल देखा, सराहा, आह भरी
तुम्हारे देखे जाने से पहले
सब सामान्य था,
पहाड़ी पर बना गेस्टहाउस,
आस-पास उगी जंगली तुलसी
रात को दूर से आती
आदिवासी संगीत की लय-तान
खिड़की के बाहर चमकता चाँद-शरद का
फ़िजाओं पर तारी चाँदनी का दुपट्टा,
जब तक तुमने नहीं देखा था,
सामान्य था..
तुम्हारी नज़रों ने देखा,
तुम्हारे कानों ने सुना,
तुम्हारी त्वचा ने छुआ,
तुम्हारी नाक ने सूंघा,
तुम्हारी जुबान ने चखा और
महसूस किया तुम्हारी रूह ने
..... सब विशिष्ट हो गया ....
सब सामान्य था, पहले
तुमने अपनी ख़ासियत का एक हिस्सा इन्हें दे दिया

Thursday, October 4, 2012

द्वीप ही बने रहना चाहता हूँ


मैं एक द्वीप रहना चाहता हूँ
बहती नदी है संसार की
आस-पास में बहती रहे
मैं नहीं संग बहना चाहता हूँ

जानता हूँ तिल-तिल रेतती हैं
धार हरहराती मुझे
मैं, अक्षुण्ण भले न
अड़े रहना चाहता हूँ

कौन जाने आपदा जो मुझपर है
कल को अनिवार कारणों से नदी पर आए
मैं यहीं, यूँ ही बना रहूँ अटल
नदी की ही धार मुड़ जाए या कि
नदी को ही स्वयं मोड़नी पड़ जाए

जो हो, जब तक रेत न हो जाऊँ पूरी तरह
(और जानता हूँ इसमें वक्त लगेगा बहुतेरा)
मैं न घुटने टेकना चाहता हूँ,
न नदी के संग बहना चाहता हूँ,

मैं जहाँ हूँ, जैसा हूँ, जबसे हूँ
बसो उतना वैसा भले न, मगर बने रहना चाहता हूँ।

Monday, September 17, 2012

हर वक्त कोई कहाँ सिकंदर रह पाता है!


 खेल कोई भी हो, अपरिहार्य वजहों से,
खतरा बढ़ जाता है
एक वक्त के बाद
हर खेल खतरनाक हो जाता है
नहीं रहता खेलने वाले के हाथ में,
किसी ओर का हो जाता है
जाने-अनजाने चली
हर चाल धारण कर लेती है
एक अर्थ
अर्थ से अनर्थ का मेल शुरू हो जाता है
प्यादे, घोड़े, हाथी, वज़ीर
सब बदलने लगते हैं रूख औ रूप
हर गोट महत्वपूर्ण हो जाती है
कोई भी चलो बाज़ी
खेल खत्म होने का
खेल शुरू हो जाता है
सारी इंद्रियाँ सजग हो जाती है
हर हरकत आ जाती है नज़रों के दायरे में
माथे के पास फड़कती नस हो
या पुतलियों का स्थिर-एकाग्र होना
हर जुंबिश का एक मायना
अज़ब और अज़ीब नजर आता है
क्या राजनीति, क्या भूगोल
क्या समाजशास्त्र, वाणिज्य, अर्थशास्त्र
हर शास्त्र बन जाता है विज्ञान
विज्ञान में कलाकार नजर आता है
एक तरफ कुआँ, एक तरफ खाई
तनी रस्सी भले नहीं पड़ती ढ़ीली
रस्सी पे चलते रहने का हुनर डगमगा जाता है
इन सब खतरों को खेते हुए
हानि, अमंगल, नुकसान सहते हुए
जो कोई इसे निभा ले जाने का
साहस जुटा पाता है
तिलस्मी दरवाजे खुलते हैं, उसी के लिए
जीत जाता है वो हर बाजी
सिकंदर बनकर उभर आता है
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नियति यह है कि कोई भी सिकंदर
हर वक्त कहाँ सिकंदर रह पाता है

Sunday, August 12, 2012

विरोधाभास...


मई-जून की
तेज धूप में
जल जाती हैं
कोंपलें, पत्तियाँ
जड़ें
बच जाती हैं
जुलाई-अगस्त की
बारिश
ठूँठ में भी
रवानी
ले आती है
लगातार तेज बारिश
मगर जब गलाती है
तो जड़ें भी
अपना
अस्तित्व
नहीं बचा पाती हैं
.....................
अभाव
झुलसा देते हों
भले, किंतु
हमारे
मूल्य बच जाते हैं
अमीरी मगर
जब गलाती है
तो
जड़ें, मूल्य, संस्कार
सब
मिटा डालती है
.....................
पुनश्चः
.................
भोग ही में
गर रस पाओ
तो
पहले अपनी जड़ें मजबूत बनाओ

Thursday, July 5, 2012

मेरे विरोधाभास

एक क्षण में
काव्यमय
तत्क्षण ही
दुनियादार
मेरे विरोधाभास
मुझे कहीं नहीं छोड़ते

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।