Sunday, November 2, 2014

कुछ हथेली पे था

सिरहाने उगता है, पैताने डूब जाता है
सूरज के मुख्तसर से सफर में सब फ़ना हो जाता है
जाने वो मेरे इर्द-गिर्द है, या मैं उसके
उसकी रोजमर्रा में, मेरा दिन ख़ाक हो जाता है
ख़्वाहिशें उगती है, उफ़क पे चाँद-तारों की तरह
सुबह होते ही सितारा डूब जाता है
कुछ हथेली पे था रेत की तरह
बंद करती हूँ मुट्ठी तो फिसल जाता है
चंद कोंपलों के बाद, सब बंजर जमीन की तरह
तेरा ख़याल दूर तक पसरा, सहरा हुआ जाता है

Wednesday, September 10, 2014

दोस्तों को....



साईकिल की
कठोर सीट से
घिस जाते थे
पेंट सबके
थिगलियाँ लगवाते थे
दर्जी दोस्त से

बेलबाटम
सड़क बुहार कर
तार-तार न हो
पुरानी चेन सिलवा लेते थे नीचे

खेल में फूटे होते थे
घुटने, पंजे,कंधे
लंगड़ाकर
चलते थे अक्सर सभी

कुहनियाँ
कंचो के खेल में हार से
लहूलुहान रहती थीं
कपड़ों पर
पड़े रहते थे दाग़
कपड़े की गेंद की मार से
..................
लड़-हार कर ही लौटते थे
घर हम सब
बचपन में,लेकिन
हम सब विश्वविजेता थे

Friday, August 8, 2014

बोझिल पलकें...



बारिश
हो या न हो
इन दिनों
हम दोनों को सोने नहीं देती
.......
जब नहीं होती
तो रातों को नींद नहीं आती तुम्हें
देखो नामो निशान नहीं है बादलों का
अधूरी नींद से उठाती-दिखाती हो मुझे
मैं कुनमुनाता-चिड़चिड़ाता हूँ
सो जाओ, हो जाएगी
और जब बरसता है पानी
मैं उठ जाता हूँ और
उठाता हूँ तुम्हें
लो देखो, बरस रहे हैं बादल
तुम खुश हो जाती हो, जाग जाती हो
...........
इन दिनों अधखुली-खुमारभरी
रहती हैं पलकें हमारी
...........
हमारी बोझिल पलकें
मोहब्बत ही नहीं
प्रकारांतर से
फिक्र-ओ-दुनिया भी जतलाती है

Tuesday, July 8, 2014

परिपक्वता




डूबती है-उतराती है-थाह पाती है
हर क्रिया का
करती है विश्लेषण
प्रतिक्रिया पे
ध्यान लगाती है
प्रत्येक विचार, भावना, कर्म, विश्वास, चिंतन
श्वास-प्रश्वास से
ऊर्जा, प्रकाश, चेतना और
विकास पाती है
उठती है उर्ध्वाधर
गहराई में विराम पाती है
.........................
तुम्हारे प्यार में
वैज्ञानिक-ऋषि-योगी बनकर
इस तरह मेरी दृष्टि
उत्तरोत्तर विस्तार पाती है.

साधारण-असाधारण



कभी उसके हाथों से
ज्यादा नहीं हुआ नमक
न फीकी रही दाल-सब्जी
मिर्च-मसालों में भी
वो संतुलन साधती है
बोल-चाल, हाव-भाव में
वो भले रहे ऊँची-नीची
अपने काम को लेकिन
वैराग-भाव से निभाती है
उसके हाथों में स्वाद है
बनाव-शृंगार में सादगी
कोई बात तो है जो उसे
इतना थिर बनाती है
.........................
नमक-मिर्च का संतुलन साधने वाली
हमारी जिंदगियों को स्वर्ग बनाती है
एक सुघड़, संपूर्ण स्त्री का होना आसपास
माहौल खुशनुमा बनाती है
.......................................
फिर क्या फर्क पड़ता है कि
वो किसकी पत्नी, बहन, माँ, बेटी
बुआ, काकी, मासी, चाची कहलाती है.

Sunday, May 25, 2014

बची है संभावना




नर्सरी से पौधे खरीदते
दंपत्ति
आश्वस्त करते हैं मुझे
हरियाली बची रहेगी अभी

लाल गुलाब
खरीदकर कोट में छिपाता
लड़का
सांत्वना देता है
प्रेम बचा हुआ है अभी

लायब्रेरी से निकलती
संजीदा नवयुवती
देती है दिलासा
पुस्तकें अब भी पढ़ी जाती हैं

सलीके से साड़ी पहने हुए
स्त्री
मानो भरोसा देती है
गरिमा हमारी अक्षुण्ण है अभी

लाख उलाहना देते हों
लोग
मुझे अब भी नजर आती है
दुनिया में संभावना

Monday, March 31, 2014

फ़्राड



तू कहता इतनी खूबसूरती से है ,तेरी हर बात पे ऐतबार हो जाए
क्या करूँ कि मुझे लफ़्जों से नहीं, काम से यकीं होता है
मैंने देखा है फरेबी को,उसकी हर अदा पर मरने को करता है दिल
वादा निभाने वाला शख़्स अक्सर साफ-गो और अपनी धुन में रहता है
अपने हुनर में उस्ताद है वो ये बात यकीनन काबिले तारीफ है
बाज़ीगरी से सचमुच कटे न सर किसी का यही अक्सर नहीं होता है
हरेक करीबी को देता है धोखा या तोड़ता है दिल
यह अजीब शौक उसे ,मौसमों की तरह बदलता रहता है
ज्यादातर बाजियों में मात खाकर भी ,शिकस्त को तैयार नहीं
खेल की तरह वो जिंदगी को ,शतरंज करता रहता है

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।