Monday, April 13, 2015

क़यामत

एक दिन 
मिट्टी हो जाता है
हर ठोस
पानी हो जाता है
हर द्रव
हवा हो जाती है
हर खुशबु
........
गोया कि
हर शै फ़ना होकर
अपने अस्ल में हो जाती है तब्दील
........
वक्त और हालात
के हाथों
एक दिन-देखना-
मैं भी ख़ुदा हो जाऊंगा

तासीर

एक बूँद गिरती है
छन्न-से
गर्म तवे पर
भाप बन जाती है
वही गिरती है
तप्त जमीं पर
अंदर रिसती चली जाती है
गिरती है फूलों पर
शबनम बन जाती है
...........
एक ही
घटना
किसी को
गुस्सा
किसी को
नेह
किसी को
प्यार
सिखाती है
.......
जो जिस
धातु से बना है
जिंदगी
उसे वैसा ही चमकाती है

सतह पर रहो !!!

स्व.कैलाश वाजपेयी से प्रथम पंक्ति उधार लेकर सम्पूर्ण कविता उन्हें ही समर्पित....
तह तक न जाओ बच्चे
एक दिन अकेले पड़ जाओगे
युद्ध लड़ो या रिश्ते बनाओ
तह तक न जाना कभी
वहाँ हर चीज उलटी-उलझी-अलग पाओगे
चीर फाड़ करोगे
हर शै को विद्रूप पाओगे
छूट जाएगी सरलता
सहज नहीं रह पाओगे
बढ़ जायेगी उलझने
संजीदा हो जाओगे
क्या मिलेगा गहराई में
कीच में सन जाओगे
.............
सतह पर रहो
सही कहलाओगे
व्यर्थ समय-शक्ति-पुरुषार्थ
गवाओगे,क्या पाओगे
जो हैं अभी साथ
उनसे भी छूट जाओगे
दूरियां बढ़ाओगे
सतह पर बिखरा पड़ा है कितना ज्ञान
उम्र बीत जाएगी
तब भी न बटोर पाओगे
एक सच की खोज में
क्यों अपना जीवन लगाओगे
जूनून में पड़ राज-पाट,स्त्री,संतति
गवाओगे
जो कभी मिल भी गया सत्य
किसको बताओगे
सतह पर रहना सीखो
प्रबुद्ध कहलाओगे

इस साल लंबा खिंचा बसंत है

इस साल लंबा खिंचा बसंत है
झरते रहे 
पीले पत्ते झर-झर
फूटती रही 
कोंपले रंगारंग
कोयल कूकती रही
शाखों पर
तितलियाँ
मंडराती रही फूलों पर
ठंडी-गर्म हवाएं
चली सुबहो शाम
पड़ा दो- एक बार
तेज़ पानी भी
आती रही सौंधी-सौंधी गंध है
इस साल लंबा खिंचा बसंत है
टेसू फूल रहा लाल-लाल
खुला-खुला दिन
दोपहर में चेहरा हो रहा लाल
शाम तक आते -आते
मीठी-सी हो जाएं हवाएं
शब मालवा की
मानो सुगंध है
इस साल लंबा खिंचा बसंत है
कभी धूप कभी बारिश
दोनों तेज -तेजतर
वर्चस्व की लड़ाई हो
और हो रही भिड़ंत है
इस साल लंबा खिंचा बसंत है

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।