Monday, October 19, 2015

जिंदगी का हर रिक्त

एक दिन पूरा अंतरिक्ष 
उजास से भर जाएगा
जिंदगी का हर रिक्त
प्यार से भर जाएगा
...........
कोई तारा दूर है बहुत जो
अपनी किरणों को लिए
चकाचौंध करता हुआ
पास में आ जाएगा
............
एक दिन मैं तुम्हारे
करीब आकर तुममे
विलीन हो जाऊंगा
एक दिन देखना
हमको जुदा
कोई नहीं कर पाएगा

पिता

वो क्षुद्र पौधों को 
कद्दावर बनाते थे
हम बोन्साई बनाने की 
योजना बनाते थे
................
वो महामानव थे
हम लघुमानवों की बात पर
मुस्कराते थे

एक लड़की

एक लड़की है
पास ही, मगर दूर -सी
उसे जानता हूँ, नहीं भी
सुघड़ ,मगर मज़दूर-सी
उसे मानता हूँ, नहीं भी
सरल ,मगर मग़रूर - सी
उसे देखता हूँ ,नहीं भी
सरस ,मगर बीहड़-सी
उसे सींचता हूँ ,नहीं भी
देह, मगर विवेक -सी
उसे मांजता हूँ ,नहीं भी
.............
वो लड़की नहीं
उधेड़बुन है

एक दोपहर शाम-सी

एक दोपहर शाम-सी
ग़ज़ल के उन्मान-सी
कहीं सांवली कही सुरमई 
राधा के घनश्याम सी
जितनी ऊँची उतनी घातक
जंगल के मचान -सी
ज्यादा साफ ज्यादा उजली
शादी के मेहमान-सी
मुझे पुकारे ताने मारे
जाते की मुस्कान सी

बोतल ही पूरा सामान

वो कहते हैं
किसी शख्स को 
नज़्म में पूरा का पूरा 
नहीं ढाला जाता है
थोड़ी सी फंतासी और रुमानियत
मिला अदब बनाया जाता है
..........
मेरे पास एक
जीता जागता इंसान है
जो पूरा का पूरा अदबी मक़ाम है
नज़्म ग़ज़ल औ फसानों का
यूँ कहो किताबो की मुस्कान है
........
वो पियें कुछ मिलाकर
उनकी ख़ुशी
मेरी तो बोतल ही पूरा सामान है

मुग्धता का जीवन क्षण भर

कोंपल की फूटन पल भर
कलियों का बचपन पल भर
फूलों का यौवन पल भर
शाख की लचकन पल भर
मुग्धता का जीवन क्षण भर
सूरज का उगना पल भर
सूरज का ढलना पल भर
तारों का खिलना पल भर
तारों का ढलना पल भर
मुग्धता का जीवन क्षण भर
किसी का आना पल भर
किसी का रुकना पल भर
जीवन का जीना पल भर
किसी का जाना पल भर
मुग्धता का जीवन क्षण भर
किसी का लिखना पल भर
किसी का गाना पल भर
मुस्कराना किसी का पल भर
किसी का खिलखिलाना पल भर
मुग्धता का जीवन क्षण भर
किसी की शामें पल भर
किसी की बातें पल भर
किसी का चमकना पल भर
किसी का महकना पल भर
मुग्धता का जीवन क्षण भर

अयाचित आशीर्वाद


कई बार
ऐसे उतरती है कविता
जैसे प्रभात में 
सूरज किरण उतरती है
हर ज़र्रे को कर देती है रोशन
हर रहस्यानुभूति पा जाती है
शब्द
आत्मा अभिव्यक्त हो जाती है
तृप्ति पाती है
..............
कई बार
यूँ भी होता है
कुछ छूता है
दिल-दिमाग को
मगर
पकड़ में नहीं आता
जैसे मुँह पर आ जाए
मकड़ी का जाला
कैद का अनुभव तो नहीं
मगर मुक्ति भी नहीं
...........
कविता लिखना
कभी आनंद का
कभी बहुत जोखिम का काम है
लिखना ,लिख पाना
अयाचित आशीर्वाद का
परिणाम है 

बंद मुट्ठी अंजुरी हो जाना चाहती है

ढीली कर दी जाती है 
एक दिन
अनायास ही
सम्पूर्ण ताकत से 
बंद की गई मुट्ठी
इसलिए नहीं कि
चुक गई है शक्ति
याकि क्षीण हो गई है शिराएँ
बल्कि
इसलिए कि
एक दुर्निवार आतंरिक पुकार
के आगे झुकना पड़ता है सभी को
..........
हर बंद मुट्ठी
अंजुरी हो जाना चाहती है
एक दिन

विज्ञापन

शहर.....
विज्ञापन बोर्ड के आगे आते हैं
बौने कर दो पेड़
............
विज्ञापन था नगर निगम का 
कहता था
पूर्वजों की याद में
फलां जगह पर
जरूर लगाएं पेड़

दूसरी ज़बान को भी समझो - सराहो

विचार 
किसी भाषा के गुलाम नहीं
लेकिन अपनी भाषा में 
सब कुछ कहना भी आसान नहीं
अपनी भाषा में गाओ -गुनगुनाओ
मगर दूसरी ज़बान को भी
समझो - सराहो
दिल बड़ा हो तो
तमाम अनुभूतियाँ
दामन थाम लेती हैं
क्योकि सारी नदियाँ
समंदर में विराम लेती है

समय


कभी सघन कभी विरल
कभी सुनहरा कभी बदरंग
कभी स्याह कभी सतरंग
मैं रंग की नहीं 
समय की बात कर रहा हूँ
कभी सापेक्ष कभी निरपेक्ष
कभी घोर अँधेरे सा
कभी रोशन किरण सा
कभी रेशमी मुलायम
कभी सख्त फौलाद सा
अज़ीब गोरखधंधा है समय
कभी स्वर्ण मृग बन जाता है
कभी अमृत कलश बिंधवाता है
कभी लड़ता है युद्ध
कभी पलायन
कभी जल समाधि दिलवाता है
कभी बँट जाता है युगों में
कभी सतत् चलता जाता है
कभी हारता है खुद से
कभी सबको हराता जाता है
अजीब !अदभुत ! अपरिवर्तनीय !
समय !समय !! समय !!!

उतरती है रचना

देखो ! उतरने को है 
कविता
कवि अनमना हो रहा है
भीड़ के बीच भी 
तनहा हो रहा है
..............
उतरती है रचना
बेकली बढ़ती जाती है
कला अपने माध्यम को
कितना तपाती है !

अब कबीर नहीं खड़ा

दौर है बड़ी विडंबनाओं का
वैश्यों का और वेश्याओं का
हर ओर लूट -सी मची है
शोर मुनाफाखोर व्यवस्थाओं का
बाज़ार में अब कबीर नहीं खड़ा
चौराहों पर कब्ज़ा राधे माँओं का
हमाम में नंगों का जुमला चला गया
अब वक्त है सरेआम नग्नताओं का
जो सत् था शुभ था मंगल था ,बीत गया
अब राज्य है अवसरवादी विद्रूपताओं का

हँसती है तो झरते फूल

फूलों से नाता है उसका
रंगों से उसे प्यार है
देर रात तक जागकर
अलसुबह उठने से बेज़ार है
आवाज़ों से उसे मुहब्बत
साज़ों से इकरार है
दिल का रोग लगा उसको
इश्क में गिरफ्तार है
बातों में उसकी जादू -सा
कलम की सरकार है
हँसती है तो झरते फूल
रोना भी बारम्बार है
पहाड़ों से उसे आशिकी
समंदर से भी प्यार है

सतही

मंच से कहने से 
हर चीज़ 
नहीं हो जाती सही
बल्कि
अंतर हो कहने-करने में
कथनी कुछ और हो
कुछ अलग हो करनी
तो भव्य हो जितना
अभिव्यक्ति का ढंग
मर्म तक जाते- जाते
हर शै हो जाती है सतही

असली -नकली

बचपन में जो बातें
मोहक लगती थी वो नकली थी
और जो उपेक्षणीय थी वो असली थी
बहुत बाद में जाना
नकली था जो
असली लगता था वो
जो असली था
हम सब उस पर हँसते थे
.....................
बहुत बाद में जाना
असली चीजें चमकती नहीं
नकली टिकती नहीं
.........
जान लिया मैंने सच
बड़े होकर
कुछ अब भी बच्चे हैं
बड़े होकर

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।